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३३० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कोपातुर यवने रजनी समे जी, दीधा दुख अनेक प्रकार जो । तोहे पण न चल्या निज ध्यान थी जी, सहेता नाडी दंड प्रहार जो।११ हस्त चरण ना नख दुरे कीया जी, व्यापी वेदन तेण अनेक जो। हार्यो यवन महादुष्टात्मा जी, जो राखी पूरव मुनी नी टेक जो ध०१२ जिम जिम वेदन व्यापे अति घणोजी, तिम सम वेदे आतमराम जो। इम जे मुनिवर सम(ता) भावे रमे जी, तेहने होज्यो नित परणाम जो दूहा:--प्रात समय श्रावक सुगी, पासे आव्या जाम ।
यवन कहै झांखो थइ, ले जाउ निज धाम ।११ 'रूपा वोहरा' ने घरे, तेडी लाव्या ताम।
हाहाकार नगरे थयो, दुष्ट ना मुख थया स्याम ।२।। 'नायसागर' नीझामता, नीरखि परिणिति शांति ।
उत्तराध्यन आदे बहु, संभलावे सिद्धांत ॥३॥ सकल जीव खमाविनइ, सरणा कोधा च्यार ।
सल्य निवारी मन थकी, पचख्या चारे अहार ।४। अणशण आराधन करी, चड़ते मन परिणाम ।
समतावंत धीरज गुणे, साध्यं आतम काम ५५ चो, व्रत कोइ आदरे, कोइ नीलवण परिहार ।
__अगडी नीम केइ उचरे, केइ श्रावक व्रत बार ६॥ संघ मुख्य 'सिवचन्द' जो, वचन कहे सुप्रसिद्ध ।
'हीरसागर' ने गछ तणी, भली भलामण दीध १७॥ संवत 'सतर चोराणुयें', वैशाख मास मझार ।
षष्ठि दिन कविवार तिहां, सिद्ध योग सुखकार ।८।
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