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________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार २६ हर्षलाभको पदस्थापन कर स्वर्गवासी हुए । संघमें शोक छा गया, पर भावोपर जोर भी नहीं चल सकता। आखिर अन्त्येष्टि क्रिया बड़ी धूमसे कर. दाहस्थलपर सुन्दर स्तूप निर्माण कर श्रावक संघने शुरुभक्तिका आदर्श परिचय दिया, भक्ति स्मृतिको चीरंजीक्त की (जिनराज सूरि शि०) मानविजयके शिष्य कमलहर्णने भी सं० १७११ श्रावण शुक्ला ११ शनिवारको आगरेमें यह निर्वाण रास रचकर गुरुभक्ति द्वारा कवित्व सफल किया। जिनचन्द्र सूरि (पृ० २४५ से २४८) बीकानेर निवासी गणधर-चोपड़ा गोत्रीय सहसमल (सहसकरण) की पत्नी राजल दे ( सुपीयार दे ) के आप पुत्ररत्न थे। आपने १२ वर्षकी लघुवयमें वैराग्यवासित होकर जिनरत्न सूरिके हाथसे जेसलमेरमें दीक्षा ग्रहण की। श्रीसंघने उत्सव किया, १८ वर्षकी वयमें (सं० १७११) जिनरत्न सूरिजी आगरेमें थे और आप राजनगरमें थे, वहां) जिनरत्न सूरिके बचनानुसार पद प्राप्त हुआ और नाहटा जयमल, तेजसी (जिनरत्नपद महोत्सवकर्ता) की माता कस्तूरांने पदोत्सव किया। (गीत नं०२) ___ नं०५ कवित्तसे ज्ञात होता है कि आपने पंचनदी साधन की थी। आपके रचित कई स्तवनादि हमारे संग्रहमें हैं। सं० १७३५ आषाढ़ शुक्ला ८ खम्भातमें आपने २० स्थानक तप करना प्रारम्भ किया था। तत्कालीन गच्छके यतियोंमें प्रविष्ट शिथि Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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