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________________ श्री दयातिलक गुरु गीतम् ४१६ श्री दयातिलक गुरु गीतम् राग-आसावरी सरद ससी सम सुहगुरु सोहइ, सयल साधु मन मोहइ । देसना वारिद जिम बरसइ, जन मयूर चित हरसइ रे ।। भाव स्युं भवीयण जण पणमउ, 'श्री दयातिलक' रिषराया । दीपंता तपकरि दिणयर जिम, नरवर प्रणमइ पाया रे ।शभा०। नवविध परिग्रह छंडि भली परि, संयम स्यु चितलाया । दोष बयाल निरंतर टालइ, मनमथ आण मनाया रे ।२। भा०। पंच महाव्रत रंगइ पालइ, पंच प्रमाद निवारई । . नितु नितु सील रयण संभालइ, भव सायर थी तारइ रे भा० चरण करण गुण सुहगुरु धारइ, आठ करम कुं वारइ । क्रोध मान मद तजइ मुनीसर, मुनिवर धर्म संभारइ ।४।भा०। "श्री क्षेमराज' पाटइ अति दीपइ, वादि विबुध जन जीपइ । वांणो श्रवणि सुहाणी छाजइ, खरतर गछि गुरु राजइ रे ।५।भा०। “वाल्हादे' उरि मानसरोवर, रायहंस अवयरिया । 'वच्छा' कुल मंडण ए सुहगुरु,गुण गण रयणे भरिया रे ।६।भा०। पूरव मुनि नी रीति भली परि, आगम करिय विचारइ । जाणि करी सूधीपरिए गुरु, गुण गरुआना धारइ रे भा०। इति श्री गुरु गीतं । (पत्र १ संग्रहमें) ... Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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