SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 542
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास ३५३ थानकि २ थाकणे, दीजइ जे मागइ । पंच वर्ण दयां भरी, वलि चालइ आगइ । कपड कीधा कोट चोट, दमामे दीधी । 'ओसवाल' भूआल धन, इम कीरति कीधी ॥१६॥ याचक नई धन कन कनक दान, देइ दालिद खंडइ । इम आडम्बर परिवर्या, आव्या वन खंडइ । त्रिण प्रदक्षिण समोसरण, विधिस्युं गुरु वंदद। 'कर्मचंद' सकटुंब लेइ, चारित्र आणंदइ ॥१०॥ दोहा:'कर्मचंद' रवि ऊगतइ, तप गण गयण उद्योत। दुरित तिमिर दूरि किआ, तिम कुमती खद्योत ॥१॥ 'मांडण' कुल मंडण करइ, 'मरुमंडलि' उलास । __ संवत 'सोलइ बावनइ, बीज' दिवसि 'माह' मास ॥ २॥ 'जेसौ' थिर थापी घरे, तिम पंचायण' पुत्र । छती ऋद्धि छांडी लिउँ, छइ (६) माणसे चारित्र ॥३॥ ढाल राग धन्याश्री:तिहां थी ते मुनि चालइ, विषय कषाय नइ पालइ । आव्या गूजर देस, पाटणि कीद्ध प्रवेस ।।४। 'विजयसेन' सूरिराय, प्रणमि पातक जाय । ते छइ नई(६) दीधी दिक्षा, ग्रहणा सेवना शिक्षा ।।५।। 'नेमिविजय' 'नाथू' जाण, 'सूरविजय' 'सुरतांण' । _ 'कर्मचन्द' मुनि नाम, 'कनकविजय' गुणधाम ।। ६ ।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy