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________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार ५६ की प्रशंसा की, कि मरुस्थलीके ज्ञानी साधु पधारे हैं। उनके बचनोंसे रत्नसिंह भी आपको बंदनार्थ पधारे और गुरुश्रोसे ज्ञान सुधाका सेवन कर बड़े प्रसन्न हुए। देवचन्द्रजीके उपदेशसे रतन भंडारी नित्य जिन पूजनादि करने लगे, एवं वहां बिम्ब प्रतिष्ठा, १७ भेदी पूजा आदि अनेकानेक धर्मकृत्य हुआ करते, उनमें भी भंडारीजी सम्मिलित होने लगे। एक बार राजनगरमें मृगीका उपद्रव हुआ, तब भंडारीजीने उसे निवारणार्थ गुरुश्रीसे विनयपूर्वक विज्ञप्ति की। आपने शासन प्रभावनादि लाभ जानकर जैन मंत्रान्नायसे उसे निवारण कर मनुष्यों का कष्ट दूर किया। इससे जिन-शासन और देवचन्द्रजीकी सर्वत्र सविशेष प्रशंसा होने लगी। ___ इसी समय रणकुजी बहुत सेना लेकर रत्नभंडारीसे युद्ध करने आये। भंडारीजी तत्काल गुरुजीके पास आये, क्योंकि उन्हें गुरुश्रीका पूरा विश्वास था, वे अपने सहायक और सर्वस्व एकमात्र आपको ही मानते थे। अतः गुरुश्रीसे निवेदन किया कि सैन्य बहुत आया है, युद्धमें विजय अब आपके ही हाथ है। गुरुश्रीने आश्वासन देकर जैनमन्त्राम्नायका प्रयोग किया, अतः युद्ध में रणकुजी हारे और भंडारीजीकी विजय हुई। धोलका बास्तव्य श्रेष्ठि जयचंदने पुरुषोतम योगीको गुरुश्रीके चरण कमलोंमें नमन कराया । गुरुश्रीने योगीके मिथ्यात्व शल्यको निवारणकर उसे जैनशासनानुरागी बनाया। सं० १७६५ पालीताने और १७६६-६७ में नवानगरमें चतुर्मास किया। वहां आपने ढुढकोंके Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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