________________
काव्योंका ऐतिहासिक सार
आद्यपक्षीय शाखा जिनहर्षसूरि
( पृ० ३३३ )
आद्य पक्षीय खरतर शाखा ( भेद ) सं० १५६६ में जिनदेव सूरिजी से निर्गत हुई थी। हमें प्राप्त पट्टावलीके अनुसार इन शाखा की पट्ट - परम्परा इस प्रकार है :
जिनवर्द्धनसूरि - जिनचन्द्रसूरि - जिनसमुद्रसूरि - पट्टधर जिन देवसूरि ( इस शाखा आदि पुरुष ) जिनसिंहसूरि - जिनचन्द्रसूरि ( पंचायण भट्टारक) के शिष्य जिनहर्षसूरिजी थे । गीतके अनुसार आप दोसी वंशके भादाजीकी भार्या भगतादेके पुत्र थे ।
अन्य साधनोंसे आपका विशेष वृत्तान्त निम्नोक्त ज्ञात हुआ है:सं० १६६३ में जैतारणमें जिनचन्द्रसूरिका स्वर्गवास हुआ । भंडारी गोत्रीय नारायणने पद महोत्सवकर आपको उनके पट्टपर स्थापित किये, जेतारणमें आपने हाथीको कीलित किया, जिसका वृत्तान्त इस प्रकार है : – सं० १७१२ वर्षे खरतर गच्छ वृद्धाआचार्य क्षेमधाड़ शाखा पंचायण भट्टारक रे पाट सांप्रत विजयमान भ० श्रीजिनहर्षसूरि जी सोजत शहर में हाथी कील्यो, तपा गच्छ हुंती बोल उपर आण्यों इंण बातरो सोजत शहर सिगलो साक्षीभूत थे । हाथी रे ठिकाने अजे सगिड़ो पूजीजे छै कोटवाली चोतरा कने मांडी बिचमें x x x ( इनके शिष्य सुमतिशकृत कालिकाचार्य कथा बालावबोध पत्र १४, यतिवर्य सूर्य्यमलजी के संग्रहमें ) ।
६
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
८१
www.jainelibrary.org