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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
श्रीसेढी तटनी तटइ, प्रगट कियड जिण थंभण पास !
कुष्ट गमाड़यउ देहनो, ते खरतर गच्छ पूरइ आस कि ||६|| संवत सोल सत्तोतर (१६१७), अणहिल पाटण नगर मझार । श्रीगुरु पहुंता विचरता, सहु भवियण मन हर्ष अपार ||७|| केई कुमति कलंकिया, बोलइ सूत्र अरथ विपरीत । निज गुरु भाषित ओलवइ, तिहां कणि श्रीगुरु पाम्यौ जीत कि ||८|| कंकाली मही मूलगी, पंडित तणौ वहै अभिमान ।
सागर छीतर सम थयो, जिहि उदयौ खरतर गुरु भानि कि ॥६॥ पाटण मांहि पंचासरौ, पाडा पाखलि जे पोशाल ।
पौल देई पैशी रह्यौ, जे मुखि लावत आल पंपाल कि ||१०|| गच्छ चौरासी मेलवी, पंच शास्त्र नी साखि उदार ।
जीत्य खरतर राजियौ, ए सहुको जाणै संसार कि ||११|| श्रुति उधाड़ा पौरसी, बहु पड़िपुना कहंतां दोष ।
मृषावाद इम बोलता, बीजौ व्रत किम पामै पोष कि || १२ || घणा दिवस ना बाकुला, मांडा गोरस लोधा वीर ।
विधिवादइ साधु लिया, ठामि २ ए दीखै हीर कि ||१३|| वर्धमान जिन वा (पा?) रणे, लोधा वासी शुद्ध आधा (हा ?) र ।
संघट्टा तेहना तुम्हें, टालो छौ ए कवण आचार कि || १४ || पर्व चारि पोसह तणा, बोलइ सूत्र अरथ नै भाखि ।
पर्व पर पोसह करौ, तेहनी नवि दीसै किह साखि कि ||१५|| सातवीस झाझेरड़ा, इम पूछइवा छइ बहु बोल |
ते सूधी परि सर्दी, भव भ्रामक कांइ (ग) वाओ निटोल कि ||१६||
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