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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
(४) * श्री जिनलाभ सूरि निर्वाण गीतम् *
ढाल-आदि जिणिंद मया करो एहनी। देश सकल सिर सौभतौ, थलवट सुथिर सुजाणो रे ।
जिहां विक्रमपुर' परगडौ, तिहां प्रगट्या मुनि भाणो रे। १॥ गुणवन्ता गुरु वंदोयै । आंकड़ी० । सुमती शाह 'पंचायण', 'पदमादेवी' नन्दा रे।
'वोहिथ' वंश विभूषण, लाल अमोल अमंदा रे । २ गु०। श्री 'जिनमक्ति' सूरीसरु, श्री खरतर गछराया रे । ___ तासु संयोगे आदर्यो, संजम शोभ सवाया रे । ३ । गु० । अरथ सहित सदगुरु दीयउ, 'लक्ष्मीलाम' सुनामो रे ।
वरस 'अढार चउडोत्तरै', पाम्यौ पाम्यौ पद अभिरामो रे।४। श्री 'जिनलाभ' सूरीसरू गछनायक गुणरागी रे।
पंचम काले परगड़ा, श्रुतधर सीम सोभागी रे । ५ । गु०। देश विदेशे विचरता, बहु भवियण प्रतिबोधी रे।
सकल कलुषता टालता, आतम धरम विरोधी रे।६। गु०, नगर "गुढे' गुरु आवीया, 'चउतीसै' चउमासै रे।
तिहां निज समय प्रकाशने, पहुंता सुर आवासै रे । ७ । गु०। चरण कमलकी थापना, अतिसयवंत विराजै रे।
दास 'क्षमाकल्याण' नौ, वंदन हुओ शुभ काजै रे । ८ । गु० । इति श्री जिनलाभ सूरि सदगुरु सिझाय (पत्र १ तत्कालीन, संग्रहमें)
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