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________________ ७२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह लक्ष्मीसिंहने भरम नामक अपने पुत्रको गुरुश्रीको वहराया और चार चौमासे वही रक्खे। सं० १४३० में संथारा कर शक्तिपुर (जोधपुर) में आप स्वर्ग पधारें और वहाँ आपका स्तूप (थुम्भ) बनाया गया, वह बड़ा चमत्कारी है, हजारों मनुष्य वहां दर्शनार्थ आते हैं। स्वर्गगमन पश्चात भी आपने तिलोकसी शाहको ६ पुत्रियों के ऊपर (पश्चात्) १ पुत्र देकर उसके वंशकी वृद्धि की । पौष शुक्ला १३ को जिनसमुद्रसूरिने स्तूपकी यात्राकर यह गीत बनाया। गुणप्रभ सूरि प्रबन्ध (पृ० ४२३) गुणप्रभसूरि प्रबन्ध और हमारे संग्रहकी पट्टावलीके अनुसार श्री जिनेश्वरसूरिजीका पट्टानुक्रम इस प्रकार है : १-श्री जिनशेखरसूरि २-श्री जिनधर्मसूरि ३–श्री जिनचन्द्रसूरि ४-श्री जिनमेरुसूरि ५-श्री गुणप्रभसूरि हुए। इनका विशेष परिचय इस प्रकार है :. सं० १५७२ में श्री जिनमेरुसूरिजीका स्वर्गवास हो जानेपर मण्डलाचार्य श्री जयसिंहसूरिने भट्टारक पदपर स्थापित करनेके लिए छाजहड़ गोत्रीय व्यक्तिकी गवेषणा की। अन्तमें जूठिल शाखा के मंत्री भोदेवरुके बुद्धिशाली पुत्र नगराज श्रावककी गृहिणी गणपति शाहकी पुत्री नागिलदेके पुत्र वच्छराजने धर्मका लाभ जानकर अपने पुत्र भोजको समर्पण किया। उनका जन्म सं० १५६५ (शाके १४३१) मिगसर शुक्ला ४ गुरुवारके रात्रिमें उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, ऋषियोग, कर्क लान, गण वर्गमें हुआ, सं० १५७५में सूरिजीने Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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