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श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध रास भरि मुगताफल थाल मनोहर, सूहव सुगुरु बधावइ ।
याचक हर्षइ गुरु गुण गांता, दान मान तब पावइ रे ।।५।। भा० फागुण सुदि बारस दिन पहुंता, लाहुर नयर मंझारि । ' मनवंछित सहुकेरा फलीया, वरत्या जय जयकार रे ॥६॥भा०|| दिन प्रति श्रीजी मुंवलि मिलतां, वाधिउ अधिक सनेह।
गुरु नी सूरति देखि अकबर, कहइ जग धन धन एह रे ॥७॥ भा० कइ क्रोधी के लोभो कूड़े, के मनि धरइ गुमान ।
षट् दरशन मई नयण निहाले, नहीं कोइ एह समान रे ||भा० हुकम कीयउ गुरु कुं शाहि अकबर, दउढ़ी महुल पधारउ ।
श्री जिनधर्म सुणावी मुझ कुं, दुरमति दूरइ वारउ रे ॥६|भा० धरम वात (२) गइ नित करता, रंजिउ श्री पातिशाहि । लाभ अधिक हुं तुम कुं आपोस, सुणि मनि हुयउ उच्छाहि रे ।।१०।।
रागः-धन्याश्री । ढालः सुणि सुणि जंबू नी अन्य दिवस वलि निज उलट भरई, महुरसउ ऐकज गुरु आगे धरइ।
इम धरइ श्री गुरु आगलि तिहाँ अकबर भूपति । गुरुराज जंपइ सुणउ नरवर नवि ग्रहइ ए धन जति ।
ए वाणि सम्भलि शाहि हरष्यो, धन्य धन ए मुनिवरू । निरलोभ निरमम मोह वरजित रूपि रंजित नरवरू ॥११॥ तब ते आपिउ धन मुंहताभणी, धरम सुथानिक खरचउ ए गणी ।
एगणीय खरचउ पुन्य संचउ कीयउ हुकम मुंहता भणी । धरम ठामि दीधउ सुजस लीधउ क्धी महिमा जग घणी।
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