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________________ जिनसुखसूरि निर्वाण गीतम् २५१ जिनसुखसूरि निर्वाण गीतम् ढाल-झबकडानी सहीयां चालौ गुरु वांदिवा, सजि करि सोल सिंगार । सहेली भाव सुं केसर भरीय कचोलडी, महि मेली धनसार ।स०१॥ 'सतरैसै असोय' समै, 'जेठ किसन' जग जाण । स० । अणशण करि आराधना, पाम्यौ पद निरवांण । स०।२। 'जिनचन्द सूरि' पाटोधरू, 'श्री जिनसुख सूरिन्द' । स०। दरसण दौलति संपजै, प्रणम्यां परमाणंद । स०।३। पढ़ थाप्यौ निज हाथ सुं, 'श्री जिनभक्ति' सूरीस । स०। खरचै संघ धन खांति सुं, इह कहै आसीस । स०।४। 'रिणी' नगर रलीयामणो, श्रावक सहु विधि जाण । स० । देस प्रदेशै दीपता, मन मोटें महिराण । स० ।५। थुम तणी थिर थापना, मोट करै महिराण । स०। हरष घणै संघ हेतु सुं, आसत अधिकी आण । स०।६। 'माह शुकल छ?' नै दिने, शुभ महूरत सोमवार । स० । 'श्री जिनभक्ति' प्रतिष्ठिया, हरख्या सहू नर नार । स०१७ सहीय सहेली सवि मिली, पहिर पटम्बर चीर । स०। गुण गावौ गछराय ना, मेरु तणी परे धीर । स०।८। नामै नवनिधि संपजै, आरती अलगी थाय । स०। कर जोड़ी 'वेलजी' कहै, लुलि २ लागे पांय ॥ सहेली भाव सुं०६॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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