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________________ . श्री गुर्वावली नं०२ २२१ दुर्बलिकापक्ष प्रधान दिगेसरु, श्री 'आरिजनन्दि' मुणिंद गणेसरू ।। गणेसरू सिर 'नागहत्थी' मान माया चूरणो, 'रेवंत' गणधर 'ब्रह्मदीपी' सूरि वंछिय पूरणो। 'संडिल' जइवर परम सुहकर, 'हेमवंत' महा मुणी । सिर 'नागअज्जुण' नाम वाचक, अमिय सम सुन्दर झूणी ॥ ६ ॥ 'श्रीगोविन्द रे वाचक पदवी हिव लहइ, ___सम दम खम रे, चरण करण भर निरवहइ। श्रुत जल निधि रे, 'दिन्नसंभूई' वायगो, 'लोकह हित' रे, सहुगुरु शुभ मति वायगो।। वायगो भासइ हियइ वासइ, 'दूष्यगणि' जगि निरमला। वर चरण खंती गुप्ति मुत्ती, नाण निश्चय उजला ॥ श्री 'उमास्वाति' सुनाम वाचक, प्रवर उपसम रतिधरो। 'पंचसय' पयरण परम वियरण, पसमरइ सुइ गुणधरो ॥१०॥ हिव 'जिनभद्र' रे, क्षमासमण नामइ गणी, श्री हरिभद्र' रे सूरीसर जगि दिनमणी ।। अंगीकृत रे, जिन मत 'देव सूरीश्वर'। श्री 'नेमिचन्द्र' रे, सूरिराय दुरयह हरू॥ दुरिय हरु सुखकरु सुविहित, सूरि 'उद्योतन' गुरो, श्री सूरिमंत्र प्रभाव प्रकटित, 'वर्द्धमान' गुणाकरो ।। दुह कुमत छेदी सुविधि वेदी, मिच्छतम तम दिणयरो, जिणधम्म दंसी अति जसंसी, भविय कयरवस सहरो. ॥११ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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