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________________ २२२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जे सुहगुरु रे, उग्र विहारे विहरता, 'अणहिल्लपुर' रे पाटणि पहुता विहरता ॥ चियवासी, रे महिमा खंडण तिह कियउ, 'दुर्लभ' नृप रे 'खरतर' विरुद तिहां दोयउ । तिह दियउ खरतर विरुद उत्तम, नाम जग मांहि विस्तरइ, आदरइ जिनमत भावि भवियण, सुविधि मारग विस्तरइ ।। चियवासो मयगल सबल दल छल, केसरी पद पाव ए, श्री 'जैनईश्वर सूरि' सुविहित, सुजस रेह रहावए ॥१२॥ "हिव सुविहतरे, चक्र चतुर चिन्तामणी, मिथ्याभर रे, तिमिर विहंडन दिनमणी ।। जिन प्रबचन रे, वचन विलास रसालए, वन मधुकर रे, अति संवेग रसालए । 'संवेगरंग विसाल साला', नाम प्रकरण जिह करो, भव पाप पंक पखालि निरमल, नीर संजम तप धरयो । 'जिनचंद्र सूरि' नवांग विवरण, रयण कोस पयास(ए)णो, श्री 'अभयदेव' मुणिंद दिनपति, परम गुण गण भासणो ॥१३॥ हिव तप जप रे, ज्ञान ध्यान गुण उजला, ___ आतम जय रे, चरणु सुधारसु निरमला। 'जिनवल्लभ' रे, सुबिहित मारग दाख ए, _ विधि थापक रे, कुमति उसूत्र वि दाख ए ।। दाख ए गंग तरंग सुवचन, अविधि तरु भंजण करी, संवेग रंग तरंग सागर, नवल आगल गुणसरी। तसु पाटि श्री 'जिनदत्त सूरि' गुरु, 'युगप्रधान' सुहायरो। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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