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________________ देव विलास २७५ mmrrrrrrrm 'ज्ञानविमलमूरि' कहे, सहसकूटनां नाम, अवसरे प्राये जणावस्युं, कहेस्युं नाम ने ठाम ॥११ ।। सकलशास्त्र उपयोगता, तिहां उपयोग न कोइ, आगम कुंची जाणवी, ते तो विरला कोइ ॥ १२ ॥ ए देशी:-माहरी सहीरे समाणी। एक दिन श्री 'पाटण' मझार, 'स्याहानी पोलिं' उदार रे । सहसजिननो रसीयो, 'देवचन्द्र' वयगे उलसीयो रे ॥ १स०॥ टेक ।। ते पोलिं चोमुखवाडी पास, सहुनी पूरे आस रे ॥स०॥१॥ सतरभेदी पूजा रचाणी, प्रभु गुणनी स्तवना मचाणी रे ।स। 'ज्ञानविमल सूरि' पूजामें आव्या, श्रावकने मन भाव्या रे ॥स० २॥ तिहां वली यात्राये 'देवचन्द्र', आव्या बहुजनने वृन्द रे ।स। प्रभुने प्रणाम करीने बेठा, प्रभुध्यान धरे ते गरीठा रे ॥स० ३।। एहवे तिहां शठ दर्शन करवा, संसार समुद्रने तरवारे सा प्रश्न करे शेठ 'ज्ञानविमलने', सहसकूट नाम अमलनेरे ॥स०४॥ बहु दिन थया तुम अवलोकन करतां, इम धर्मनां कार्य किम सरतारास० प्राये सहसकूटना नामनी नास्ति, कदाचि कोइ शास्त्र अस्तिरे ।स० ५। ज्ञानसमसेर तणा झलकारा, देवचन्द्र बोल्या तेणिवाररे ।स। श्रीजी तुमे मृषा किम बोलो, चित्तथी वात ते बोलोरे (खोलोरे)।स०६॥ प्रभु मन्दिरमें यथार्थनी व्यक्ति, किम उपजे श्रावक भक्तिरे ।स।. तुमे कोविदमें कहेवाओ श्रेष्ठ, अयथार्थ कहो ते नेष्टरे। ॥स०७॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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