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सोमसिद्धि (साध्वी) निर्वाण गीतम् २१३ चारित्र पालतां दोहिलउ, सुकुमाल जु तुझ देहो रे । मत कहिज्यो कांइ तुम्ह वली, मुझ चारित्र ऊपर नेहो रे ॥६॥सो० उच्छव महोत्सव कीधा घणा, दीक्षा लीधी सारो रे । लावण्यसिद्धि' कन्हइ रहइ, सूत्र अर्थ ना ल्यइ विचारो रे ॥१०॥सो० 'सोमसिद्धि' नाम जु थापीयउ, गुणे करी निधानो रे ।
आपणइ पद थापो सही, चारित्र पालइ प्रधानो रे ॥११॥सो०॥ 'सैंत्रुज' प्रमुख यात्रा करी, तिम वलि तीर्थ उदारोरे।
कीधी भावइ सदा सही, तप उपमा सारो रे ॥ १२ ॥सो०॥ 'श्रावण वदि चउदसि' दीनइ, 'वृहस्पतिवार' प्रधानो रे।
अणसण लीधउ भावसं, सब कला गुण निधानो रे ।१३।सो। देव थानक पहुंता सही, श्री गुरुणी गुणवंतो रे।
गुरुणी आस्या पूरी करउ, मुझ मन घणी खंतो रे ॥१४॥सो०।। विरला पालइ नेहडउ, तुंम सु (तो?) प्राण आधारो रे।
तुम्ह बिना हुँ क्युंकर रहुं, दुखीया तुं साधारो रे ।१५।सो०। मोरा नइ वलि दादुरां, बाबीहा नइ मेहो रे.
चकवा चिंतवत रहइ, चंदा उपरि नेहो रे ।। १६ ॥ सो० ॥ दुखोयां दुख भांजीयइ, तुम्ह बिना अवर न कोइ रे ।
सहगुरुणी गुण गावीयइ, वांदउ दिन दिन सोइ रे ॥ १७ ॥सो०॥ चंद्र सूरज उपमा, दीजइ ( अधिक ) आणंदो रे । पहुतोणी 'हेमसिद्धि' इम भणइ, देज्यो परमाणंदो रे ॥१८॥सो०॥
॥ इति निर्वाण गीतम् ।। (तत्कालीन लि० हमारे संग्रहमें)
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