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विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास
" तिहां थी आग्य उल्लासइ, 'साबली' नगरि 'माह' मासि । 'अजुआली छट्ठि' वखाणी,
तीन मास लगइ गुरु मौनी, अमारि पलावइ 'सोनी' ।
संघ मुख्य 'रतनसी' साह, लीधो लखमी नु लाह ॥ ४० ॥ 'श्री' कनक विजय' उवझाय, वखाण करइ मुनिराय ।
पालइ निज गुरुनो आण, थास्यइ ते तपगछ भाण ॥ ४१ ॥ गुरुजीह विधानं बइठा, पातक पायालिं पइठा । -छट्ट (अ) ठुम करइ अनेक, उवपवस (उपवास?) घणा सुविवेक ॥। ४२ ॥ afar करी धवल धानि, पूरव दिसि बइसइ ध्यानि ।
पचखाण जणावा माटिं, आप अक्षर लिखी पाटि || ४३ ॥ श्रावक तिहां अगर कपूर, उगाहइ परिमल पूर ।
इण परि आचारय मंत्र, आराधइ पूज्य पवित्र ॥ ४४ ॥ वैसाख मास जब आवइ, सुहिणइ सुर वात जणावइ ।
वाचक निं निजपट आपउ, गछ भार 'कनकजी' नइ थापड || ४५ || ए वाणि सुणी गुरु हरख्या, जिम शीतल जल थी तरस्या ।
मह (य) लि बहु मंगल कीजइ, गुरु आया 'आखातीजई' ||४६ || आवइ तिहां संघ अपार, अंग पूजा ना अंबार ।
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॥३९॥
दुखं दालिद दूरी गमाया, याचक घर सुभर भराया ||४७॥ 'सावली' नइ 'इडरि' जुइ, प्रासाद प्रतिष्ठा हुई ।
'राय' देशि शोभा लोधी, गुरु दोइ चौमासी कीधी ||४८ || हवइ 'राजनगरि' गुरु आवर, चउमासुं संघ करावइ ।
बीजुं 'बीबीपुर' मांहि, गुरु चतुर चउमासु चाहइ ||४६ ||
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