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श्रीकीर्तिरत्नसूरि चउपइ
श्रीकल्याणचन्द्रगणि कृत সীহিলহি অঘ
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सरसति सरस वयण दे देवि, जिम गुरु गुण बोलिउ संखेवि । पीजइ अमोय रसायण बिंदु, तहवि सरीरिइ हुइ गुण वृन्द ।१॥ महि मंडण पयडउ धण रिद्धि, नयर महेवउ नर बहु बुद्धि ।
ओसवंश अति घण तिणि ठाण, वसइ मुरद्दम जिम धणदाण ।२। तहि श्री संखवाल गुणवंत, उदयवंत साखा धनवंत । कोचर साह तणइ संतान, आपमल्ल देपा बहु मानि ॥ ३ ॥ सीलिहि सीता रुपइ रंभ, दान देइ न करइ मनि दंभ ।। देप घरणी देवलदे नारि, पुत्त रयण तिणि जन्मा च्यारि ॥४॥ लखउ भादउ साह सुरंग, केल्हउ देल्हउ बंधव चंग ।। धनद जेम धनवंत अनेक, धर्मकाजि जसु अति सविवेक ॥५॥ चउदह गुणपचासह जम्मु, दिखिउ देल्ह त्रेसइ रंमु ॥ श्रीजिनवर्द्धन सूरिहि शास्त्र, कीर्तिराइ सीखविय सुपात्र ॥६॥ हिव वाणारीय पद सत्तरइ, पाठक पद असीयइ उधरइ ।। तयणंतरि आयरिह मंतु, जोगि जाणि गुरि दीधउ मंतु ॥णी लखउ केल्हउ करइ विस्तारि, उछव जेसलमेर मंझारि ।। . श्रीजिनभद्रसूरि सत्ताणवइ, किया श्री कीर्तिरयण सूरिवइ ।।८।। वादो मइंगल ता गड़ अड़इ, जां गुरु केसरि दृष्टि नव चड़इ । जव किरि अम्ह गुरु बोलइ बोल, वादी मूकइ मांन निटोल ॥६॥
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