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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तिण वरसे 'सूरेत' ना, असपति अवसर देख ।
तिडावै सहगुरु तुरत, लायक मूंकी लेख ॥२३॥ दया लाभ देखी घणौ, ऊपजतो उण देस ।
सुमति गुपति संभालता, पुर तिण कीध प्रवेश ॥२४॥ सरस वर जुग श्रावके, करतां नव नव कोड़।
सुपरै सेवा साचवी, हित सुं होडा होड़ ॥२५॥ कर राजी श्रावक सकल, जग सगलै जस खाट ।
_ 'राजनगर' आया रहण, वहता पगवट वाट ॥२६॥ तिहां पिण तालेवर तुरत, उच्छव करै अपार ।
दोय वरस लगि राति दिन, सेवा कीधी सार ॥२७॥ मन थिर कर साथे थई, श्रावक सहु परिवार ।
सत्रुजनी सेवा करे, गुरु चढ़िया गिरनार ॥२८॥ उतर तिहां थी आविया, 'वेलाउल' वंदाय ।
महिमा मोटी 'मांडवी', पूजण सद्गुरु पाय ॥२६॥ कोडी-धज तिण नगर में, लखपति तणा लंगार ।
सहु श्रावक सुखिया जिहां, वारधि सुं विवहार ॥३०॥ वरस लगै तिहां वायर्यो, धन अगिणत धर्म काज।
_ चोखे दिन 'भुज' चालिया, राजी हुए गुरुराज ।।३१।। 'भुज' तणे श्रावक भलो, सेवा कीध सवाय।
___भाग बली जिहां संचरै, थट सगला तिहां थाय ॥३२॥ इण विधि अट्ठारै वरस, दीन (दिन दिन?) नव नव देस ।
परचिया श्रावक प्रघल, वाणी तणै विशेष ॥३३॥ हिव वहिला विनती सुणी, करिज्यो पूज प्रयाण ।
'बीकानेर' वंदाविज्यो, सेवक अपणा जाण ||३४।।
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