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________________ ३८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह घर आया, कुटम्बमें आनन्द छा गया और कोचर शाह तभी से ( सं० १३१३ ) खरतर गच्छानुयायी श्रावक हो गये और उन्होंने जिनेश्वरसूरिजीके हस्तकमल से जिनालयकी प्रतिष्ठा करवाई। इसके बाद कोचर शाह कोरटेमें जा बसे वहां उनके कुलगुरु (पूर्वके गुरू, अन्य गच्छीय ) के पुनः अपने गच्छमें आनेके लिये बहुत " अनुरोध करनेपर भी आप विचलित न हुए । -- वहां सत्तूकार- दानादि शुभ कृत्य करते हुए आनन्दपूर्वक रहने लगे । रोलूके आपमल्ल और देपमल्ल नामक दो पुत्र हुए। इनमें देपमल्लकी भार्या देवलदेकी कुक्षिसे १ लक्खा, २ भादा, ३ केल्हो, ४ देल्हा ये ४ पुत्र उत्पन्न हुए । इनमें लक्खोको लक्ष्मीने प्रसन्न हो ७ पीढ़ियोंतक रहनेका वरदान दिया और वे वीसलपुर में रहने लगे भादा जैसलमेर, केल्हा महेवा रहने लगा और चौथे लघु पुत्र देल्हेका वृतांत यह है:- सं० १४४६ में आपका जन्म हुआ, १३ वर्षकी अवस्थामें विवाह करनेके लिये आप बरात लेकर राद्रह जाने लगे। मार्ग में खीमजथलके समीप जान ( बरात ) ठहरी वहां एक खेजड़ीका वृक्ष था उसे देखकर एक राजपूतने कहा कि इस वृक्षके ऊपरसे जो बरछी निकाल देगा मैं उससे अपनी पुत्रीका पाणिग्रहण कर दूंगा । देल्हे कुमारके इशारेसे उनके सेवक (नाई ने राजपूतके कथनानुसार कर दिखाया पर इस कार्यको करनेमें अधिक परिश्रम लगनेसे उसका प्राणान्त हो गया, इस घटनासे + *अन्य प्रमाणोंमें इसका कारण और ही पाया जाता है पर उन सबका विचार स्वतंत्र निबंध में करेंगे । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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