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XIV
धर्म:' के मन्त्र द्वारा उन्हें इतर प्राणियोंकी भी रक्षाके लिये तत्पर बना दिया। स्याद्वाद नयकी उदारता द्वारा जैनियोंने सभीकी सहानुभूति प्राप्त कर ली । अनेक राजाओं और सम्राटोंने इस धर्मको स्वीकार किया और उसकी उदार नीतिको व्यवहारमें उतारकर चरितार्थ कर दिखाया । इन्हीं कारणोंसे अनेक संकट आनेपर भी यह धर्म आज भी प्रतिष्ठित है।
किन्तु दुखकी बात है कि धार्मिक विचारोंमें उदारता और धर्म प्रचारमें तत्परताके लिये जैनी कभी इतने प्रसिद्ध थे, वे ही आज इन बातोंमें सबसे अधिक पिछड़े हुए हैं। विश्वभरमें बन्धुत्व और प्रेम स्थापित करनेका दावा रखनेवाले जैनी आज अपने ही समाजके भीतर प्रेम और मेल नहीं रख सकते । मनुष्यमात्रको अपनेमें मिलाकर मोक्षका मार्ग दिखानेवाले जैनी आज जात-पांतकी तंग कोठरियों में अलग-अलग बैठ गये हैं, एक दूसरेको अपनाना पाप समझते हैं । अन्य धर्मों के विरोधोंको भी दूर कर उनमें सामजस्य उपस्थित करनेवाले आज एक ही सिद्धान्तको मानते हुए भी छोटी-छोटी-सी बातोंमें परस्पर लड़-भिड़कर अपनी अपरिमित हानि करा रहे हैं।
ऐसी परिस्थितिमें यह स्वाभाविक है कि जैन-धर्मकी कुछ अनुपम निधियां भी दृष्टिके ओझल हो जावें और उनपर किसीका ध्यान न जावे । जैनियोंका प्राचीन साहित्य बहुत विशाल, अनेकांगपूर्ण ओर उत्तम है । दर्शन और सदाचारके अतिरिक्त, इतिहासकी दृष्टिसे भी जैन-साहित्य कम महत्वका नहीं है। भारतके न जाने
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