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________________ श्रोजिनचन्द्र सूरि गीतानि १०७ (१७) रागः-आसावरी पूज्यजी तुम्ह चरणे मेरुउ मन लीणउ, ज्यु मधुकर अरविंद । मोहन बेलि सबइ मन मोहियउ, पेखत परमाणंद रे ॥१॥पूज्य०॥ सुललित वाणि वखाण सुणावति, श्रवति सुधा मकरंद रे । भविक भवोदधि तारण बेरी, जनमन कुमदनी चंदरे ।।२।। पूज्य० ॥ रीहड वंश सरोज दिवाकर, साह श्रीवंत कउ नंद रे । "समयसुन्दर"कहइ तुं चिरप्रतपे,श्रीजिणचन्द मुणिंद रे ॥३॥पुज्य०॥ (१८) आसावरी भले री माई श्री जिनचन्द्रसूरि आए। श्रीजिन धर्म मरम बूझण कू, अकबर शाहि बुलाए ॥ १ ॥ सद्गुरु वाणी सुणि शाहि अकबर, परमाणंद मनि पाए । हफतहरोज अमारि पालन कुं, लिखि फुरमान पठाए ॥२॥ श्रो खरतर गच्छ उन्नति कीनी, दुरजन दूर पुलाए । _ "समयसुन्दर" कहै श्रीजिनचन्दसूरि सब जनके मन भाए ॥३॥ (१९) आसावरी सुगुरु चिर प्रतपे तु कोड़ेि वरीस। खंभायत बन्दर माछलड़ो, सब मिलि देत आशीस ॥ १ ॥ सु०. धन धन श्री खरतरगच्छ नायक, अमृतवाणि वरीस । शाहि अकबर हमकुं राखणकुं, जासु करी बकशीस ॥ २ ॥ लिखि फुरमाण पठावत सबही, धन कर्मचन्द्र मंत्रीश । “समयसुन्दर" प्रभु परम कृपा करि, पूरउ मनहि जगीश ॥३॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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