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________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास ३४३ देस मोटो तिम मोटा कोस, भोला लोक नहीं मनि रोस । बोलइ भाषा प्राहिं अटारी, कडि बांधइ बहु लोक कटारी ॥२१॥ लोक धरइ हाथि हथिआर, वाणिग पणि झूठा झूझार। रणं विढतां पणि पाछा पग नापइ, साहमो साहमणिं नइ थिर थाप।।२२ कपट विहूणी बोलइ गाढिइं, गरढो पणि जिहां धुंघट काढइ । विधवा पणि पहरइ करि चूडि, राव रसोइ राधई रूड़ी ॥२३॥ प्रहो पाहुणई सबल सजाइ, राय राणा नी परि भुंजाइ । पाटभक्त मनमां नहीं द्रोह, स्वामिभक्त स्यु अधिको मोह ॥२४॥ पुण्यवन्त प्राहिं नहि खुंट, वाहण साहण चढ़वा ऊंट । जिहां थाकइ तिहां लिइ विश्राम, चोर चखार तणुं नहीं नाम ॥२५।। लोक लाख लोलाई चालइ, सोना रूपी (या) हाथि उछालइ । दुस्मन नइ सिर देवा दोट, मोटा 'मारूआडि' नवकोटा॥२६॥ प्रथम कोट 'मंडोवर' ए ठाम, हव (गां) 'जोधनयर' अभिराम । बोजो 'अबुद' गढ़ ते जाण्यो, त्रीजो गढ़ 'जालोर' वखाण्यो ॥२७॥ चोथो गढ ते 'बाहडमेर', पांचमो 'पारकरो' नहीं फेर। 'जेसलिमेरि' छठो कोट, जिणि लागइ नहिं बहरी चोट ॥२८॥ 'कोटडई' सातमो कोट वडेरो, आठमो कोट कह्यो 'अजमेरो'। कोइ 'पुष्कर' कोइ कहइ ‘फलबद्धी, नवकोटी 'मारू आडि' प्रसिद्धी ॥२६ दोहा धन 'मंडोवर' मरुधरा, जिहां 'मंडोवर' 'पास' । 'गुणविजई' कहइ प्रभु पूजतां, पूरइ मननी आस ॥३०॥ आज सफल दिन मुझ हु(योउ, अबहुं हु(य)उ सनाथ । "गुणविजय' कहइ जब मुझ मल्यो, 'फलवधि' 'पारसनाथ ॥३१॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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