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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
विसम छंदलक्खणिण सत्थ अत्थत्थ विसालह ।
'जिणवल्लह' गुरुभत्तिवंतु पयड़उ कलिकालह ।। अन्निहि वि गुणिहि संपुन्न तणु दीन दुहिय उद्धरणु धर ।
_ 'जिणदत्तसूरि' 'पर पल्हभ(?)णु तत्तवंतु सलहियइ धर ॥६॥ वक्खाणियइ त परम तत्तु जिण पाउ पणासइ ।
___ आरहियइ त 'वीरनाहु' कइ 'पल्हु' पयासइ ॥ धम्मु तु दय संजुत्तु जेण वरगइ पाविज्जइ ।
चाउ त अणखंडियउ जु बंदिणु सलहिज्जइ ।। जइ ठाउ३६ त उत्तिमु मुणिवरहवि (पवर वसहिहो चउर नर । तिम सुगुरु सिरोमणि सूरिवर ‘खरतर सिरि' 'जिणदत्त' वर ॥१०॥
१ इति श्री पट्टावली षट् पदानि। संवत् ११७० वर्षे अश्व युगाद्य पद्ये ११ तिथौ श्री मद्धारानगयीं श्री खरतर गच्छे विधिमार्ग प्रकाशि वसतिवासि श्री जिणदत्त सूरीणां शिष्येण जिनरक्षित साधुना लिखितानि । ___ २ इति श्री पट्टावली ॥ संवत् ११७१ वर्षे पत्तन महानगरे श्री जयसिंह देव विजयिराज्ये श्री खरतरगच्छे योगीन्द्र युगप्रधान वसति वासि जिनदत्त सूरीणां शिष्येण ब्रह्मचंद्र गणिना लिखिता ।। शुभ भवतु श्री मत्पार्श्वनाथाय नमः सिद्धिरस्तु ।
३९ ठाइ।
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