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श्रीजिनरतनसूरि गीतानि
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श्री जिनरतनसूरि गीतानि
काल अनन्तानन्त एहनी ढाल'श्री जिनरत्न सूरीश', पूज वांदेवा हो मुझ मन छइ सही। देखण तुझ दीदार, आवइ चतुर्विध हो श्रीसंघ सामउ उमही ॥ १ ॥ गुरुया श्री गच्छराजा, खरतर गच्छ मई...'पूज दीपइ सदा।। प्रतपइ अधिक पडूर, जिण मुख दीठइ हो सुख होवइ मुदा ॥ २ ॥ 'लुणिया' वंश विख्यात, साह 'तिलोकसी' हो कुल सिर सहेरउ । 'तेजल' देवि मल्हार, हंस तणी परि हो सहगुरु अवतयंउ ॥३॥ 'पाटण' नयर प्रसिद्ध, श्री 'जिनराजई' हो सई हथि थापीयउ । संवेगी सिरदार, अधिकउ जाणी हो गुरु पद आपियउ ।। ४ ॥ मुख जिसउ पूनिमचंद, वाणि सुधारस हो निज मुख वरसतउ । करतउ उग्र विहार, भव्य जोवानइ हो नित प्रतिबोधतउ ॥ ५॥ ताहरो त्रिभुवन माहि, मस्तक आणज हो मन सूधी धरइ । युगवर वीर जिणन्द, तेह तणी परि हो उत्कृष्टी करइ ।। ६॥ (प्रण) मइ भवियण लोक, तुझ मुख देख्यां हो पाप सबे टल्या । 'राजविजय' गुरु शिष्य, 'रूपहर्ष' भणि हो वंछित मुझ फल्या ॥ ७ ॥
(२) रागः-ढाल-नायकारी श्री गच्छ नायक सेवियइ रे, 'श्री जिनरतन' सूरिंद रे । सुगुरुजी। पूज्य नइ वधावउ मोतिया रे लाल, आणी मन आणंद रे ।सुगुरुजी।।
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