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विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास "श्रीविजयदेव' सूरिंदइ, सकल संघजि आणंदइ।
_ 'कनकविजय' कविराय, कीधा श्री उवझाय ॥ १८ ॥ इम जे गुरु नि आराधइ, ते सुख संपति साधइ ।
विजयदेव' गणधार, भूतलि करइ विहार ॥ १९ ॥ साहि 'सलेम' उदार, करवा सुगुरु दीदार।
'मांडवगढ़' गुरु तेड्या, कुमति ना मद फेडया ॥ २० ।। देखी 'तपगछ नाह', खुसी भयो पातिसाह ।
जगगुरुके पटि पूरे, बड़े 'विजय देव' सूरे ॥ २१ ॥ शाहि 'जहांगीरी थापइ, नाम 'महातपा' आपइ ।
चंइके गुरु मोटे, तोडि करइ तेहु खोटे ॥ २२ ॥ गुहिरा निसाण गाजइ, पातिशाही बाजा बाजइ।
मिलीया 'मालवी' संघ, 'दक्षिणी' श्रावक संघ ॥ २३ ॥ पांभरी दोइ पग लागा, केइ केसरि आदिई वागा।
मिसरू मलमल साइ, पगि पटकूल विछाइ ।॥ २४ ॥ वीटी वेढ़ गांठोडा, वलि दोधा घणा घोड़ा।
श्रावक श्राविका आवइ, मोती थाले वधावइ ।। २५ ।। लोक लाख गुरु पूजइ, तेहना पातिक धूजई। गुरुजी नइ पटिं दीवउ, 'विजयदेव' चिरंजीवउ ॥ २६ ।।
दोहा 'विजय देव' गुरु गाजता, 'गूजर' देशि विहार ।
अनुक्रमि करता आविया, 'सोरठ' देश मंझार ॥ २७ ॥ 'विमलाचल' तीरथ बडउ, सकल तीर्थ श्रृंगार ।
जिहां श्री'ऋषभ' समोसर्या, पूर्व नवाणुं वार ॥२८॥
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