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________________ श्रीजिनप्रभसूरीणां गीतम् १३ श्रीजिनप्रभसूरीणा गीतम् । उदय ले खरतर गछ गयणि, अभिनवउ सहस करो। सिरी जिणप्रभुसूरि गणहरो, जंगम कल्पतरो ॥१॥ वहु भविक जन जिणवाशण, वण नव वसंतो। छतीस गुण संजूत्तो वाइय मयगल दलण सीहो ।आंचली। तेर पंचासियइ पोस सुदि आठमि, सणिहि वारो। भेटिउ असपते "महमदो”, सुगुरि ढीलिय नयरे ।। २॥ आपुणु पास बइसारए, नमिवि आदरि नरिन्दो। अभिनव कवितु बखाणिवि, राय रखइ मुणिंदो।।३।। हरखितु देइ राय गय तुरय, धण कणय देस गामा। भणइ अनेवि जे चाह हो, ते तुह दिउ इमा ॥४॥ लेइ णहु किंपि जिणप्रभसूरि, मुणिवरो अति निरीहो। ___श्रीमुखि सलहिउ पातसाहि, विविह परि मुणि सीहो।।५।। पूजिवि सुगुरु वस्त्रादिकहि, करिवि सहिथि निसाणु । देइ फुरमाणु अनु कारवाइ, नव वसति राय सुजाणु ॥६॥ पाट हथि चाडिवि जुगपवरु, जिणदेव सूरि समेतो। __ मोकलइ राउ पोसाल है वहु, मलिक परि करीतो ॥णा वाजहि पंच सवुद गहिर सरि, नाचहि तरुण नारि । इंदु जम गइंदसहि तु, गुरु आवइ वसतिहिं मझारे ।।८।। धम्म धुर धवल संघवइ सयल, जाचक जन दिति दानु । .. संघ संजूत बहु भगति भरि, नमहिं गुरु गुणनिधान ।।६।। सानिधि पउमिणि देवि इम, जगि जुग जयवन्तो। नंदउ जिणप्रभसूरि गुरु, संजम सिरि तणउ कंतो ॥१०॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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