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४१४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री जिनलाभ सूरि विहारानुक्रम
(सं० १८१५ से सं० १८३३)
॥दोहा॥ गच्छ नायक लायक गुणे, सागर जेम गम्भीर ।
निज करणी कर निरमला, जाण गंगा नीर ॥११॥ तपसी तालावर तणे, गच्छपति किसी गरज।
आसंगायत आपणा, इण परि करै अरज ॥२॥ 'पांच बरस रहिया प्रथम, दिन दिन वधतै डाण।
गच्छ नायक 'जिनलाभ' गुरु, बड़ बखती 'बीकाण' ॥३॥ ५वाण १चन्द्र ८बसु १शशि' वरस, सरस भलौ श्रीकार ।
शुभ वेला 'वीकाण' सु, वारु कियौ विहार ||४|| सधन घरे समझू सकल, घण श्रावक जसु वास ।
गुणवंतौ 'गारब शहर', तिहां कीधौ चौमास ॥५।। आठ मास तिहां थी उठे, वंदावी थल देश।
_ 'जेसाणै' गुरु जाय नै, परगट कियौ प्रवेश ।।६।। च्यार वरस लगि चाहतूं, नित नित नवल नेह ।
___ बड़ वखती श्रावक जिके, जतने राखै जेह ॥७॥ तिहां तीरथ छै 'लौद्रवौ', जूनौ जगहि वदीत ।
तिहां प्रभु पारस परसिया, सहसफणा शुभ रीत ।।८।। सीख करे तिहां थी सुमन, पुलिया पच्छिम देस ।
सुख विहार आया सुगुरु, प्रणमेवा पासेस ।।६।।
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