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श्री जिनधर्मसूरि पट्टधर जिनचन्द्र सूरि गीतम् ३३७ जिनधर्मसूरि पट्टधर जिनचंद्रसूरि गीतम् ।
१-देशी दरजणरा गोतरी ॥ सुणि सहियर मुझ बातड़ी, तुझ नै कहुं हित आणी । हे बहिनी ।
आचारज गच्छ रायनी, सुणिवा जइयइ वाणि । हे बहिनी ॥१॥ सूरतड़ी मन मोही रह्यउ ॥ आंकड़ी ।। सहगुरु बेसी पाटियइ, वाचे सूत्र सिद्धन्त । हे बहिनी ।
मोहन गारी मुंहपत्ति, सुन्दर मुख सोहन्त । हे बहि नी ॥२॥ गहूंली सद्गुरु आगलै, करियै नवनवी भांति । हे बहिनी।
सुगुरु बधावां मोतीये, मन मांहि धरि खांति । हे बहिनी ॥३॥ बैसी मन विहसो करी, सांभलां सरस बखाण । हे बहिनी ।
__ भाव भेद सूधा कहै, पण्डित चतुर सुजाण । हे बहिनी ॥४॥ साधु तणी रहणो रहइ, पालै शुद्ध आचार । हे बहिनी ।
सूरि गुणे करि शोभतो, श्री खरतर गणधार । हे बहिनी ॥ ५ ॥ 'बुहरा' वंश विराजतो, 'सांवल' शाह सुविख्यात । हे बहिनी । रतन अलिक उर धर्यो, 'साहिबदे' जसु माता । हे बहिनी ।। ६॥ श्री जिनधर्मसूरि' पाटवी, श्री 'जिनचन्द्रसूरीश' । हे बहिनी। अविचल राज पालो सदा, पभणै 'पुण्य' आशीस । हे बहिनी ॥ ७॥
लिखितं सम्बत् १७७६ वर्ष वैसाख सुदी १२ भौमे । जिन युक्ति सूरि पट्टधर जिनचंद्र सूरि गीतम् । पूजजी पधार्या मारू देशमें, दूधांबूठाजी मेह । गुणवन्ता हो गच्छपति। श्रोसंघ वांदे हो अधिक उच्छाह सुं, मन धरि धर्म सनेह ॥१॥
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