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हरिवंशपुराणे एकैको हीयते चाधः सीमन्तनरकादिषु । चतुःशेषोऽप्रतिष्ठानो न श्रेणी न प्रकीर्णकाः ।।८।। शतं षण्णवतं दिक्ष चतुरूनं विदिक्ष तत् । सीमन्तकस्य तन्मिश्रमष्टाशीतं शतत्रयम् ।।८।। शतं द्वानवतं दिक्ष साष्टाशीति विदिक्ष तत् । कुण्डानां नरकस्यैतद् युक्त्वाशीत्या शतत्रयम् ॥९०।। अष्टाशीतं शतं दिक्ष चतुरूनं विदिक्ष तत् । रोरुकस्य विमिश्रं तद् द्वासप्तत्या शतत्रयम् ।।११।। शतं चतुरशीतिश्च भ्रान्ते दिक्ष विदिक्ष तत् 1 साशीति नारकं मिश्रं चतुःषष्टया शतत्रयम् ॥१२॥ साशीतिकं शतं दिक्षु षट्सप्तत्या विदिक्षु तत् । षट्पञ्चाशद्विमिश्रं स्यादुद्भ्रान्तस्य शतत्रयम् ।।९३॥ षट्सप्तत्या शतं दिक्षु द्वासप्तत्या विदिक्षु तत् । द्वयूनपञ्चाशता मिश्रं संभ्रान्तस्य शतत्रयम् ॥९४॥ द्वासप्तत्या शतं दिक्ष साष्टषष्ट्या विदिक्षु तत् । असंभ्रान्तस्य मिश्रं तच्चत्वारिंशं शतत्रयम् ।।९५।। साष्टषष्टिशतं दिक्ष चतुःषष्ट्या विदिक्ष तत् । द्वात्रिंशं तवयं युक्तं विभ्रान्तस्य शतत्रयम् ॥१६॥ चतुःषव्या शतं दिक्ष शतं षष्ट्या विदिक्ष च । त्रस्तस्य तदद्वयं मिश्रं चतुर्विशं शतत्रयम् ॥१७॥ शतं षष्ट्याधिक दिक्ष षट्पञ्चाशं विदिक्ष तत् । त्रसितस्य समायुक्तं षोडशाग्रं शतत्रयम् ॥२८॥ घटपञ्चाशं शतं दिक्ष द्वापञ्चाशं विदिक्ष तत् । वक्रान्तस्य समायुक्तमष्टोत्तरशतत्रयम् ॥९९।।।
द्विपञ्चाशं शतं दिक्ष चत्वारिंशं सहाष्टभिः । विदिक्षु मिश्रितं तरस्यादवक्रान्ते शतत्रयम् ॥१०॥ विलकी चार विदिशाओंमें प्रत्येकमें अड़तालीस-अड़तालीस श्रेणिबद्ध विल हैं। इन श्रेणियों तथा श्रेणिबद्ध विलोंके सिवाय बहतसे प्रकीर्णक विल भी हैं ॥८७|| इन सीमन्तक आदि नरकोंमें नीचे-नीचे क्रम-क्रमसे एक-एक विल कम होता जाता है। इस प्रकार सातवीं पृथिवीके अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रककी चार दिशाओंमें एक-एकके क्रमसे केवल चार विल हैं। वहां न श्रेणी है और न प्रकीर्णक विल ही हैं ॥८८॥ इस प्रकार प्रथम पृथिवीके प्रथम सोमन्तक इन्द्रकको चार दिशाओं में एक सौ छियानबे, चार विदिशाओंमें एक सौ बानबे और सब मिलाकर तीन सौ अठासी श्रेणीबद्ध विल हैं ।।८९॥ दूसरे प्रस्तारके नारक इन्द्रकको चार दिशाओंमें एक सौ बानबे, चार विदिशाओंमें एक सौ अठासी और सब मिलाकर तीन सौ अस्सी श्रेणिबद्ध विल हैं ।।९०॥ तीसरे प्रस्तारके रोरुक इन्द्रककी चार दिशाओंमें एक सौ अठासी, चार विदिशाओं में एक सौ चौरासी और सब मिलाकर तीन सौ बहत्तर श्रेणिबद्ध विल हैं ॥९१॥ चौथे प्रस्तारके भ्रान्त नामक इन्द्रकको चार दिशाओंमें एक सौ चौरासी, विदिशाओंमें एक सौ अस्सी और सब मिलाकर तीन सौ चौंसठ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥९२॥ पाँचवें प्रस्तारके उद्भ्रान्त नामक इन्द्रक विलको दिशाओंमें एक सौ अस्सी, विदिशाओं में एक सौ छिहत्तर और सब मिलाकर तीन सौ छप्पन श्रेणिबद्ध विल हैं ।।९३।। छठवें प्रस्तारके सम्भ्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओं में एक सौ छिहत्तर, विदिशाओं में एक सौ बहत्तर और सब मिलाकर तीन सौ अड़तालीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥९४|| सातवें प्रस्तारके असम्भ्रान्त नामक इन्द्रक विलको चारों दिशाओंमें एक सौ बहत्तर, विदिशाओंमें एक सौ अड़सठ और सब मिलाकर तीन सौ चालीस श्रेणीबद्ध विल हैं ।।१५।। आठवें प्रस्तारके विभ्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ अडसठ, विदिशाओंमें एकसौ चौसठ और सब मिलाकर तीन सौ बत्तीस श्रेणीबद्ध बिल हैं॥९६|| नौंवें प्रस्तारके त्रस्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ चौसठ, विदिशाओंमें एक सौ साठ और सब मिलाकर तीन सौ चौबीस श्रेणिबद्ध विल हैं ।।९७।। दसवें प्रस्तारके त्रसित नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ साठ, विदिशाओं में एक सौ छप्पन और सब मिलाकर तीन सौ सोलह श्रेणिबद्ध विल हैं |२८|| ग्यारहवें प्रस्तारके वक्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओं में एक सौ छप्पन, विदिशाओंमें एक सौ बावन और सब मिलाकर तीन सौ आठ श्रोणिबद्ध विल हैं ।।९९|| बारहवें प्रस्तारके अवक्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ बावन, विदिशाओं में एक सौ अड़तालीस और सब मिलाकर तीन सौ श्रेणिबद्ध विल हैं ।।१०।।
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