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हरिवंशपुराणे
श्रेणिबद्धानि चैतानि सहस्रे च षट्शती । नवतिः पञ्चभिर्युक्ता भवन्ति नरकाणि तु ॥ ११६ ॥ चतुर्विंशतिलक्षाश्च नवतिः सप्तभिस्त्विह । सहस्रगुणिताः पञ्च त्रिशती च प्रकीर्णकाः ॥ ११७ ॥ तप्तस्यापि शतं दिक्षु नरकाणां विदिक्षु तत् । मता षण्णवतिर्युक्तं शतं षण्णवतं तु तत् ॥ ११८ ॥ दिक्षु षण्णवतिर्द्वाभ्यां विदिक्षु नवतिर्युता । तपितस्य तु तद् युक्तमष्टाशीतं शतं मतम् ॥ ११९ ॥ दिक्षु द्वानवतिः सा स्यादष्टाशीतिर्विदिक्षु तत् । तपनस्य तु तद्युक्तमशीत्या सहितं शतम् ॥ १२०॥ अष्टाशीतिर्महादिक्षु विदिक्षु चतुरुत्तरा । अशीतिस्तापनस्यै तद् द्वासप्तत्या शतं युतम् ॥१२१॥ अशीतिश्चतुरूर्ध्वा स्याद् दिवशीतिर्विदिक्षु तत् । निदाघस्यापि तद्युक्तं चतुःषष्टियुतं शतम् ॥१२२॥ दिक्ष्वशतिर्विदिक्षु ज्ञैः षट्सप्ततिरुदाहृता । युक्तं प्रज्वलितस्यापि षट् पञ्चाशं शतं हि तत् ॥ १२३॥ दिक्षु षट्सप्ततिज्ञेया चतुरूना विदिक्ष, सा । शतमुज्ज्वलितस्योभे चत्वारिंशं शतं मतम् ।। १२४ || दिक्षु द्वासप्ततिः सा स्यादष्टापष्टिर्विदिक्षु तत् । युक्तं संज्वलितस्यापि चत्वारिंशं शतं मतम् ॥१२५॥ अष्टषष्टिहादि चतुःषष्टिर्विदिक्षु तत् । संप्रज्वलितसंज्ञस्य द्वात्रिंशत्संयुतं शतम् ॥ १२६ ॥ श्रेणिवद्धानि चामूनि सहस्रं च चतुःशती । पञ्चाशीतिश्च जायन्ते नवस्त्रपि सहेन्द्रकैः ।। १२७|| लक्षाश्चतुर्दशाष्टाभिर्नवतिश्च प्रकीर्णकाः । सहस्रताडिता पञ्च शती पञ्चदशापि च ॥ १२८ ॥
इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ चार, विदिशाओं में सौ और सब मिलाकर दो सौ चार श्रेणिबद्ध विल हैं ।। ११५ ।। इस प्रकार इन ग्यारह प्रस्तारोंके श्रेणिबद्ध विल दो हजार छह सौ चौरासी और इन्द्र विल ग्यारह हैं तथा दोनों मिलाकर दो हजार छह सौ पंचानबे हैं ॥ ११६ ॥ तथा प्रकीर्णक विल चौबीस लाख सत्तानवे हजार तीन सौ पाँच है । इस तरह सब मिलकर पचीस लाख विल हैं ॥११७॥
तीसरी पृथिवीके पहले प्रस्तार सम्बन्धी तप्त नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओं में सौ, विदिशाओं में छियानबे और सब मिलाकर एक सो छियानबे श्रेणिबद्ध विल हैं ||११८ || दूसरे प्रस्तारके तपित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें छियानवे, विदिशाओंमें बानबे और दोनोंके मिलाकर एक सौ अट्ठासी श्रेणिबद्ध विल हैं ।। ११९ ॥ तीसरे प्रस्तारके तपन नामक इन्द्रककी चारों दिशाओं में बानबे, विदिशाओं में अट्ठासी और दोनोंके मिलाकर एक सौ अस्सी श्रेणिबद्ध विल हैं || १२० || चौथे प्रस्तारके तापन नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओं में अट्ठासी, विदिशाओं में चौरासी और दोनोंके मिलाकर एक सौ बहत्तर श्रेणिबद्ध विल हैं || १२१ ॥ पाँचवें प्रस्तार के निदाघ नामक इन्द्रक विकी चारों दिशाओंमें चौरासी, विदिशाओं में अस्सी और दोनोंके मिलाकर एक सौ चौंसठ श्रेणिबद्ध विल हैं ।। १२२ ।। छठे प्रस्तार के प्रज्वलित नामक इन्द्रकको चारों दिशाओं में अस्सी, विदिशाओं में छिहत्तर और दोनोंके मिलाकर एक सौ छप्पन श्रेणिबद्ध विल हैं ॥ १२३ ॥ सातवें प्रस्तारके उज्ज्वलित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओं में छिहत्तर, विदिशाओं में बहत्तर और दोनों मिलाकर एक सौ अड़तालीस श्रेणिबद्ध विल हैं || १२४ || आठवें संज्वलित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओं में बहत्तर, विदिशाओं में अड़सठ और दोनोंको मिलाकर एक सौ चालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ।। १२५ || और नौवें प्रस्तारके संप्रज्वलित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें अड़सठ, विदिशाओं में चौंसठ और दोनोंके सब मिलाकर एक सौ बत्तीस श्रेणिबद्ध विल हैं ।। १२६ || इस प्रकार नौ प्रस्तारोंके समस्त श्रेणिबद्ध विल एक हजार चार सौ छिहत्तर हैं । इनमें नो इन्द्रक विलोंकी संख्या मिलानेपर एक हजार चार सौ पचासी विल होते हैं ॥ १२७॥ तीसरी पृथिवीमें चौदह लाख, अंठानबे हजार पाँच सौ पन्द्रह प्रकीर्णक हैं और सब मिलाकर पन्द्रह लाख विल हैं ॥ १२८ ॥
१. नम. ।
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