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चतुर्थः सर्गः
नीलाख्यश्च महानीलो निरयो मघवाक्षितो । दिक्ष पङ्कमहापङ्को हिमनाम्नस्तथा स्थितः ॥१५७।। स्थिताः कालमहाकालरोरवा निरयास्तथा । महारौरवनामा च स्वाप्रतिष्ठानदिक्ष ते ।।१५८॥ नवतिश्च सहस्राणि त्रिशती च प्रकीर्णकाः । लक्षाश्चैव व्यशीतिः स्युश्चत्वारिंशच्च सप्तभिः ॥१५९।। सहस्राणि नव श्रेणी-गतानां षट्शतीन्द्रकैः । त्रिभिः पञ्चाशता लक्षा अशीतिश्चतुरुत्तरा ॥१६॥ तेषु संख्येयविस्ताराः षडूलक्षाः प्रथमक्षितौ । सन्त्यसंख्येयविस्ताराश्चतुर्विंशतिरेव ताः ॥१६१॥ सन्ति संख्येयविस्ताराः पञ्चलक्षास्तु विंशतिः । ततोऽसंख्येयविस्तारा नरकौघा ह्यधःक्षितौ ॥१६२॥ लक्षास्तिस्रस्तृतीयायां ख्याताः संख्येययोजनाः । असंख्येयास्तु विस्तारा लक्षा द्वादश तु क्षितौ ॥१६३॥ लक्षद्वयं चतुर्था तु नारकाणां क्षितौ ततः । संख्येययोजनानां स्यादन्येषामष्ट लक्षिताः ।।१६४॥ अधःपष्टिसहस्राणि संख्यया ध्वनितान्यतः । चत्वारिंशत्सहस्राणि द्विलक्षाण्यपराग्यपि ।। १६५॥ एकोनविंशतिः षष्टयां सहस्राणि नवोत्तरा । नवतिर्नवशत्यामा संख्येया ध्वनितानि तु ॥१६६।। सप्ततिश्च सहस्राणि नवासंख्येययोजनाः । शतानि नारकावाला नवषण्णवतिस्त्विह ।।१६७।। एक संख्येयविस्तारं सप्तम्यां नरकं मतम् । ततोऽसंख्येयविस्तारं नरकाणां चतुष्टयम् ॥१६८॥ तत्र संख्येयविस्तारा इन्द्रकाः सर्व एव ते । श्रेणीबद्धास्त्वसंख्येयविस्तारा नरकालयाः ॥१६९॥ केचित् संख्येयविस्ताराः सर्वभूमिप्रकीर्णकाः । केऽप्यसंख्ययविस्तारा इत्थं ते तूभयात्मकाः ॥१७॥
पूर्व दिशामें निरुद्ध, पश्चिम दिशामें अतिनिरुद्ध, दक्षिणमें विमर्दन और उत्तरमें महाविमर्दन नामके चार प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ।।१५६।। छठवीं पृथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो हिम नामका इन्द्रक विल है उसकी पूर्व दिशामें नील, पश्चिम दिशामें महानील, दक्षिणमें पंक और उत्तरमें महापंक नामके चार प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ।।१५७।। और सातवों पृथिवीमें जो अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रक है उसकी पूर्व दिशामें काल, पश्चिम दिशामें महाकाल, दक्षिण दिशामें रौरव और उत्तर दिशामें महारोरव नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं ॥१५८।। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमें तेरासी लाख, नब्बे हजार, तीन सौ सैंतालिस प्रकीर्णक, नौ हजार छह सौ श्रेणिबद्ध, उनचास इन्द्रक और सब मिलाकर चौरासी लाख विल हैं ॥१५९-१६०||
प्रथम पृथिवीके तीस लाख विलोंमें छह लाख विल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और चौबीस लाख विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१३१॥ उसके नीचे दूसरी पृथिवीमें पांच लाख संख्यात योजन विस्तारवाले और बोस लाख असंख्यात योजन विस्तारवाले विल हैं ।।१६२।। तीसरी पृथिवीमें तीन लाख संख्यात योजन विस्तारवाले और बारह लाख असंख्यात योजन विस्तारवाले विल हैं ।।१६३।। चौथी पृथिवीमें दो लाख विल संख्यात योजन विस्तारवाले हैं और आठ लाख असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६४।। पांचवीं पृथ्वीमें साठ हजार विल संख्यात योजन विस्तारवाले हैं और दो लाख चालीस हजार विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६५॥ छठवीं पथिवीमें उन्नीस हजार नौ सौ निन्यानबे विल संख्यातयोजन विस्तारवाले हैं और उन्यासी द्वज नौ सौ छियानबे विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६६-१६७॥ सातवीं पथिवीमें एक अर्थात् बीचका इन्द्रक विल संख्यात योजन विस्तारवाला है और चारों दिशाओंके चार विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६८॥ सातों पृथिवियोंमें जो इन्द्रक विल हैं वे सब संख्यात योजन विस्तारवाले हैं, तथा श्रेणिबद्ध विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं और प्रकीर्णक विलोंमें कितने ही संख्यात योजन विस्तारवाले तथा कितने हो असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं इस तरह उभय विस्तारवाले हैं ।।१६९-१७०॥
१. साकमित्यर्थः।
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