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हरिवंशपुराणे इन्द्रकैः सह सर्वाणि श्रेणीबद्धान्यमून्यपि । द्वे शते नरकाण्युक्ने पञ्चषष्टिविमिश्रिते ॥१४३॥ द्वे लक्ष च सहस्राणि नवमिर्नवतिस्तथा । शतानि सप्त कथ्यन्ते पञ्चत्रिंशत् प्रकीर्णकाः ॥१४४॥ षोडशैव महादिक्षु द्वादशैव विदिक्षु च । हिमस्यापि विमिश्रं स्यादष्टाविंशतिरेव तत् ॥१४५॥ द्वादशैव महादिक्षु विदिक्ष्वष्टौ तु तद्वयम् । सहितं नरकाणां स्याद् वर्दलस्य तु विंशतिः ॥ १४६॥ अष्टावेव महादिक्षु चत्वार्येव विदिक्षु च । लल्लक्कस्य समेतं तु द्वादशैव तु तद्वयम् ॥१४७॥ त्रिषष्टिरिन्द्रका साध श्रेणीबद्धान्यमून्यपि । नवतिश्च सहस्राणि नवभिः सहितानि तु ।।१४८॥ शतानि नव तत्रापि द्वात्रिंशच प्रकीर्णकाः । प्रकीर्णनारकाकीर्णाः प्रणीताः प्राणिदुःसहाः ।।१४९।। एकमेव महादिक्षु विदिक्षु नरकं न हि । अप्रतिष्ठानयुक्कानि पञ्च स्युर्न प्रकीर्णकाः ।।१५०।। काङ्क्षाख्यश्च महाकाङ्क्षः पूर्वपश्चिमयोर्दिशोः । पिपासातिपिपासाख्यौ दक्षिणोत्तरयोस्तथा ।।१५१।। सीमन्तकेन्द्रकस्यामी चत्वारोऽनन्तराः स्थिताः । दुर्वर्णनारकाकीर्णाः प्रसिद्धा नारकालयाः ॥५२॥ अनिच्छाख्यो महानिच्छो निरयो विन्ध्यनामकः । महाविन्ध्यामिधानश्च तरकस्य तथा स्थिताः ।।१५३ दुःखाख्यश्च महादुःखो निरयो वेदनामिधः । महावेदननामा च तप्तस्यामी तथा स्थिताः ॥१५४॥ निसृष्टातिनिसृष्टाख्यौ निरोधो निरयोऽपरः। महानिरोधमाला च तेऽप्यारस्य तथा स्थिताः ॥१५५॥ निरुद्धातिनिरुद्धाख्यौ तृतीयश्च विमर्दनः । महाविमर्दनाख्यश्च तमोनाम्ना तथा स्थिताः ॥१५६।।
प्रकार पाँचवीं पृथिवीमें पाँच इन्द्रक विल मिलाकर समस्त इन्द्रक और श्रेणिबद्ध विलोंको संख्या दो सौ पैंसठ है। तथा दो लाख निन्यानबे हजार सात सौ पैंतीस प्रकीर्णक विल हैं और सब मिलकर तीन लाख विल हैं ।।१४३-१४४।। छठवीं पृथिवी सम्बन्धी प्रथम प्रस्तारके हिम नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें सोलह, विदिशाओंमें बारह और दोनोंके मिलाकर अदाईस श्रेणिवद्ध । हैं ।।१४५।। दूसरे प्रस्तारके वर्दल नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें बारह, विदिशाओंमें आठ और दोनोंके मिलाकर बीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१४६।। और तीसरे प्रस्तारके लल्लक नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें आठ, विदिशाओंमें चार और दोनोंके मिलाकर बारह श्रेणिबद्ध विल हैं।।१४७।। इस प्रकार छठवीं पृथिवीके तीन प्रस्तारोंमें तीन इन्द्रकोंकी संख्या मिलाकर वेसठ इन्द्रक
और श्रेणिबद्ध विल हैं तथा निन्यानबे हजार नौ सौ बत्तीस प्रकीर्णक विल हैं और सब मिलकर पाँच कम एक लाख विल हैं । ये सभी विल प्राणियोंके लिए दुःखसे सहन करने के योग्य हैं ।।१४८-१४९।।
सातवीं पृथिवीमें एक ही प्रस्तार है और उसके बीच में अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक है उसकी चारों दिशाओंमें चार श्रेणिबद्ध विल हैं। इसकी विदिशाओंमें विल नहीं हैं तथा प्रकीर्णक विल भी इस पृथिवी में नहीं हैं। एक इन्द्रक और चार श्रेणिबद्ध दोनों मिलकर पांच विल हैं ॥१५०।।।
वोके प्रथम प्रस्तारमें जो सीमन्तक नामका इन्द्रक विल है उसकी पूर्व दिशामें कांक्ष, पश्चिम दिशामें महाकांक्ष, दक्षिण दिशामें पिपास और उत्तर दिशामें अतिपिपास नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं । ये महानरक इन्द्रक विलके निकट में स्थित हैं तथा दुर्वर्ण नारकियोंसे व्याप्त हैं ।।१५१-१५२॥ दूसरी पृथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो तरक नामका इन्द्र के विल है उसकी पूर्व दिशामें अनिच्छ, पश्चिम दिशामें महानिच्छ, दक्षिण दिशामें विन्ध्य और उत्तर दिशामें महाविन्ध्य नामके प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ।।१५३।। तीसरी पृथिवीके प्रथम प्रस्तार में जो तप्त नामका इन्द्रक विल है उसको पूर्व दिशामें दुःख, पश्चिम दिशा में महादुःख, दक्षिण दिशामें वेदना और पश्चिम दिशामें महावेदना नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं ।।२५४|| चौथी पथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो आर नामका इन्द्रक विल है, उसको पूर्व दिशामें निःसष्ट, पश्चिम दिशामें अतिनिःसृष्ट, दक्षिण दिशामें निरोध और उत्तर दिशामें महानिरोध नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं ॥१५५।। पांचवों पृथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो तम नामका इन्द्रक है उसकी
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