________________
चतुर्थः सर्गः चत्वारिंशं शतं दिक्षु विक्रान्तस्य सहाष्टमिः । चत्वारिंशं चतुर्भिस्तद् विदिक्ष परिकीर्तितम् ॥१.१॥ द्वयं तच्च समायुक्तं द्वयं द्वानवतं शतम् । इन्द्र के नरकाणां स्यात् परिवारस्त्रयोदशे ॥१०२।। श्रेणिन्द्वान्यमुनि स्युः सहस्राणीन्द्रकैः सह । त्रयस्त्रिंशचतुःशल्या चत्वारि समुदायतः ॥१.३॥ ये लक्षाशिदकोना नवतिः पञ्च पञ्चभिः । सहस्राणि शतैस्तेऽपि सप्तषष्ट्या प्रकीर्णकाः ॥१०॥ चत्वारिंशं शतं दिक्ष चतुर्भिस्तरकस्य तत् । विदिक्ष चतुरूनं द्वे अशीत्या चतुरन्तया ॥१०५॥ चत्वारिंशं शतं दिक्ष पत्रिंशं तु विदिक्ष तत् । स्तनकस्य समस्तं तत् षट्सप्तत्या शतद्वयम् ॥१०६॥ पटत्रिंश हि शतं दिक्ष द्वात्रिंशं तु विदिक्ष तत् । मनकस्य समस्तं तत् साष्टषष्टि शतद्वयम् ॥१०७॥ द्वात्रिंशं हि शतं दिक्ष त्वष्टाविंशं विदिक्ष तत् । वनकस्य समन्तं तत् षष्ट्या युक्तं शतद्वयम् ॥१०॥ अष्टाविंशं शतं दिक्ष चतुर्विशं विदिक्ष तत् । घाटस्यापि समस्तं तत् द्वापञ्चाशं शतद्वयम् ॥१०९॥ चतुर्विंशं शतं दिक्ष विशमेव विदिक्ष तत् । संघाटस्य चतुर्युक्तं चत्वारिंशं शतद्वयम् ॥१०॥ दिक्ष वियां शतं ज्ञेयं पोडशानं विदिक्ष तत् । जिह्वाख्यस्य समस्तं तत् पटत्रिंशं हि शतद्वयम् ।।१११॥ पोडशा शतं दिक्ष द्वादशाग्रं विदिक्ष तत् । जिह्वकाव्यस्य युक्तं स्यादष्टाविंशं शतद्वयम् ॥११२॥ द्वादशाग्रं शतं दिन विदिश्वष्टोत्तरं शतम् । लोलस्यापि समस्तं तत् विंशत्यग्रं शतद्वयम् ॥११३॥ अष्टोत्तरशतं दिक्ष विदिक्ष चतुरुत्तरम् । लोलुपस्य समस्तं तत् द्वादशाग्र शतद्वयम् ।।११४॥ चतुर्भिश्च शतं दिक्ष विदिक्षु शतमायतम् । तत्तनुलोलुपाख्यस्य चतुर्युक्तं शतद्वयम् ॥१५॥
और तेरहवें प्रस्तारके विक्रान्त नामक इन्द्रक विलको चारों दिशाओं में एक सौ अडतालीस,विदिशाओंमें एक सौ चौवालीस और दोनोंके सब मिलाकर दो सौ बानबे श्रेणिवद्ध विल हैं ॥१०१-१०२।। इस प्रकार तेरहों प्रस्तारोंके समस्त श्रेणिबद्ध विल चार हजार चार सौ बीस, इन्द्रक विल तेरह और श्रेणिबद्ध तथा इन्द्रक दोनों मिलाकर चार हजार चार सौ तेंतीस विल हैं। इनके सिवाय उनतीस लाख पंचानवे हजार पाँच सौ सड़सठ प्रकीर्णक विल हैं। इस प्रकार सब मिलाकर प्रथम पृथिवीमें तीस लाख विल हैं।।१०३-१०४|| द्वितीय पृथिवीके प्रथम प्रस्तारकेस्तरक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ चौवालीस, विदिशाओं में एक सौ चालीस और सब मिलाकर दो सौ चौरासी श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०५।। द्वितीय प्रस्तारके स्तनक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ चालीस, विदिशाओमें एक सौछत्तीस और सब मिलाकर दो सौ छिहत्तर श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०६|| तृतीय प्रस्तारके मनक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ छत्तीस, विदिशाओंमें एक सौ बत्तीस और सब मिलाकर दो सौ अड़सठ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०७।। चतुर्थं प्रस्तारके वनक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ बत्तीस, विदिशाओंमें एक सौ अट्ठाईस और सब मिलाकर दो सौ साठ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०८॥ पंचम प्रस्तारके घाट नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ अट्ठाईस, विदिशाओंमें एक सौ चौबीस और सब मिलाकर दो सौ बावन विल श्रेणिबद्ध हैं ॥१०।। षष्ठ प्रस्तारके संघाट नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ चौबीस, विदिशाओं में एक सौ बीस और सब मिलाकर दो सौ चौवालीस श्रेणिबद्ध विल हैं।।११०॥ सप्तम प्रस्तारके जिह्व नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ बीस, विदिशाओंमें एक सौ सोलह और सब मिलाकर दो सौ छत्तीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१११॥ अष्टम प्रस्तारके जिह्वक नामक इन्द्रकको चारों दिशाओंमें एक सौ सोलह, विदिशाओंमें एक सौ बारह और सब मिलाकर दो सौ अट्ठाईस श्रेणिबद्ध निल हैं ॥११२॥ नवम प्रस्तारके लोल नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ बारह, विदिशाओंमें एक सौ आठ और सब मिलाकर दो सौ बीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥११३॥ दशम प्रस्तारके लोलुप नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ आठ, विदिशाओं में एक सौ चार और सब मिलाकर दो सौ बारह श्रेणिबद्ध विल हैं ॥११४॥ और एकादश प्रस्तारके स्तन-लोलुप नामक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org