________________
चतुर्थः सर्गः
भवन्त्यब्बहले भागे धर्माणां नारकाश्रयाः । योजनानां सहस्रं तु मुक्त्वो धोविभागयोः ॥७॥ अयमेव क्रमो ज्ञेयः शेषास्वपि च भूभिषु । सप्तम्यां मध्यदेशेऽमी सत्रिंशे क्रोशपञ्चके ॥७२॥ लक्षा नरकभेदानां स्युस्त्रिंशत्पञ्चविंशतिः । तासु पञ्चदशैवैता दश तिस्रस्तथैव च ॥७३॥ पञ्चोनापि च लक्षका पञ्च चैव यथाक्रमम् । लक्षाश्चतुरशीतिः स्युस्तेषां संग्रहसंख्यया ॥४॥ त्रयोदश यथासंख्यमेकादश नवापि च । सप्त पञ्च त्रयश्चकः प्रस्तारास्तासु भूमिषु ॥७५॥ सीमन्तको मतः पूर्वो नरको रौरुस्ततः । भ्रान्तोद्भ्रान्तौ च संभ्रान्तः परोऽसंभ्रान्त एव च ॥७६॥ विभ्रान्त तथा वस्तो धर्मायां प्रसितः परः। वक्रान्तश्चाप्यवक्रान्तो विक्रान्तश्चेन्द्र काः स्मृताः ॥७॥ स्तरक स्तनकश्चैव मनको वन कस्तथा । घाटसंवाट रामानौ जिह्वाख्यो जिबिकामिधः ॥७॥ लोलश्च लोलुपश्चापि तथाऽन्यस्स्तनलोलुपः । वंश यामिन्द्रका ह्यते जिनैरेकादशोदिताः ॥७९॥ तप्तश्च तपितश्चान्यस्तपनस्तापनः परः । पञ्चमश्च निदाघाख्यः षष्ठः प्रज्वलितो मतः ॥८॥ तथैवोज्ज्वलितो ज्ञेयस्ततः संज्वलितोऽष्टमः । संप्रज्वलित इत्यन्यस्तृतीयायां नवेन्द्रकाः ।।८१॥ आरस्तारश्च मारश्च वर्चस्कस्तमकस्तथा। खडः खडखडश्चेति चतुथ्यां सप्त वर्णिताः ॥८२॥ तमो भ्रमो झषोऽतश्च तामिस्रश्चेत्यमी स्मृताः । इन्द्रका नगराकाराः पञ्चम्यां पञ्च संहिताः ॥८३॥ हिमवर्दललल्लक्कास्त्रयः षष्ठ्यामपीन्द्रकाः । सप्तम्यामप्रतिष्ठानमेकमेवेन्द्रकं विदुः ॥८४॥ ज्ञेया ह्येकोनपञ्चाशदिन्द्रकाः संयुतास्त्वमी । अधोऽधो न्यूनका द्वाभ्यामुपर्युपरि वृद्धयः ।।५।। सीमन्तके चतुर्दिक्ष प्रत्येकं नारकालयाः । तिष्ठन्त्येकोनपञ्चाशत् श्रेणिबद्धा महान्तराः ॥८६।। तावन्त एव चैकोनाः श्रेणिबद्धाः विदिक्ष च । प्रत्येक बहवस्तेभ्यस्ताभ्योऽन्यत्र प्रकीर्णकाः ॥८७॥
घर्मा नामक पहली पृथिवीके अब्बहुल भागमें ऊपर-नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर कयोंके विल हैं। यही क्रम शेष पथिवियोंमें भी समझना चाहिए, किन्तु सातवीं पथिवीमें पैंतीस कोशके विस्तारवाले मध्य देशमें विल हैं ।।७१-७२।। पहली पृथिवीमें तीस लाख, दूसरीमें पच्चीस लाख, तीसरीमें पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीमें तीन लाख, छठवीं में पांच कम एक लाख, सातवीं में पांच और सातोंमें सब मिलाकर चौरासी लाख विल हैं ||७३-७४।। उन पृथिवियोंमें क्रमसे तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पाँच, तीन और एक प्रस्तार अर्थात् पटल हैं ॥७५॥ धर्मा पृथिवीके तेरह प्रस्तारोंमें क्रमसे निम्नलिखित तेरह इन्द्रक विल हैं-१ सीमन्तक, २ नारक, ३ रोरुक, ४ भ्रान्त, ५ उद्भ्रान्त, ६ संभ्रान्त, ७ असम्भ्रान्त, ८ विभ्रान्त, ९ त्रस्त, १० त्रसित, ११ वक्रान्त, १२ अवक्रान्त और १३ विक्रान्त ।।७६-७७|| श्री जिनेन्द्र देवने वंशा नामक दूसरी पृथिवीके ग्यारह प्रस्तारोंमें निम्नांकित ग्यारह इन्द्रक विल बतलाये हैं-१ स्तरक, २ स्तनक, ३ मनक.४ वनक. ५ घाट, ६ संघाट, ७ जिह्वा, ८ जिबिक, ९ लोल, १० लोलुप और ११ स्तनलोलुप ।।७८-७९|| तीसरी मेघा पृथिवीके नौ प्रस्तारोंमें निम्न प्रकार नौ इन्द्रक विल बतलाये हैं-१ तप्त, २ तपित, ३ तपन, ४ तापन, ५ निदाघ, ६ प्रज्वलित, ७ उज्ज्वलित, ८ संज्वलित और ९ संप्रज्वलित ।।८०-८१।। चौथी पथिवीके सात प्रस्तारों में क्रमसे निम्नलिखित सात इन्द्रक विल हैं-१ आर, २ तार, ३ मार, ४ वर्चस्क, ५ तमक, ६ खड और ७ खडखड ।।८२।। पांचवीं पृथिवीके पाँच प्रस्तारोंमें निम्नलिखित पांच इन्द्रक विल हैं-१ तम, २ भ्रम, ३ झष, ४ अन्त और ५ तामिस्र । ये इन्द्रक विल नगरोंके आकार हैं ।।८३।। छठवों पृथिवीमें १ हिम, २ वर्दल और ३ लल्लक ये तीन इन्द्रक विल हैं ।।८४।।
तों पथिवियोंके सब इन्द्रक मिलकर उनचास हैं। ऊपरसे नोचेको ओर प्रत्येक पथिवीमें दो-दो कम होते जाते हैं और नीचेसे ऊपरकी ओर प्रत्येक पृथिवी में दो-दो अधिक होते जाते हैं ।।८५।। प्रथम पृथिवीके प्रथम प्रस्तार सम्बन्धी सोमन्तक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओं में प्रत्येकमें उनचासउनचास श्रेणिबद्ध विल हैं और ये परस्पर बहुत भारी अन्तरको लिये हुए हैं ।।८६।। इसी सीमन्तक १. सल्लका म., ख.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org