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हरिवंशपुराणे विज्ञयाः पङ्कबहुलाच्छेषाः षडपि भूमयः । स्वस्वबाहुल्यहीनैकरज्ज्वायामनिजान्तराः॥५६॥ द्वात्रिंशदथ बाहुल्यमष्टाविंशतिरेव च । चतुर्विशतिरप्यासां विंशतिः षोडशाच ॥५७॥ योजनानां सहस्राणि षण्णामपि यथाक्रमम् । पृथिवीन विनिर्दिष्टं दष्टतत्वैर्जिनेश्वरैः ॥५८॥ दशानामसुरादीनां प्रथमायां च सद्मनाम् । संख्या सा प्रतिपत्तव्या परिपाच्या व्यवस्थिता ॥५९॥ चतुःषष्टिः स्मृता लक्षा अशीतिश्चतुरुत्तरा । द्वासप्ततिस्तथा लक्षाः षण्णां षट्सप्ततिस्ततः ॥६०॥ भवनानां तथा लक्षा नवतिश्च षडुत्तरा । चैत्यालयाश्च विज्ञेयाः प्रत्येक समसंख्यया ॥६१॥ चतुर्दश सहस्राणि षोडशापि यथाक्रमम् । भताना राक्षसानां च सन्ति समान्यधो भूवः ॥६२॥ असुरा नागनामानः सुपर्णतनयामराः। द्वीपोदधिकुमाराश्च तथैव स्तनितामराः ॥६३॥ विद्युत्कुमारनामानो दिक्कुमारास्तथापरे । देवा अग्निकुमाराश्च कुमारा वायुपूर्वकाः ॥४॥ मणिद्यमणि नित्याभे पाताले निवसन्ति ते । यथायथं निवासेषु देवा भवनवासिनः ॥६५॥ असुराणां च तत्रायुः साधिकः सागरः स्मृतः । तथा नागकुमाराणां ज्ञेयं पल्योपमत्रयम् ॥६॥ तत् सुपर्णकुमाराणां साध पल्योपमद्वयम् । द्वयं द्वीपकुमाराणां शेषाणां पल्यमर्द्धभाक् ॥१७॥ असुराणां धनू षि स्यादुत्सेधः पञ्चविंशतिः । मौमैदशैव शेषाणां ज्योतिषां सप्त तस्वतः ॥६॥ सौधर्मशानयोर्देवाः सप्तहस्तोच्छयास्ततः । एकार्धहानौ सर्वार्थसिद्धौ हस्तोऽवशिष्यते ॥६॥
अतः परं प्रवक्ष्यामि शृणु श्रेणिक ! लेशतः । सप्तानामपि भूमीना क्रमेण नरकालयान् ॥७॥ स्वरूप ही है ।।५५॥ पंक भागसे शेष छह भूमियोंका अपना-अपना अन्तर अपनी-अपनी मोटाईसे कम एक-एक रज्जु प्रमाण है ॥५६॥ समस्त तत्त्वोंको प्रत्यक्ष देखनेवाले श्री जिनेन्द्र देवने द्वितीयादि पृथिवियोंकी मोटाई क्रमसे बत्तीस हजार, अट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार योजन बतलायी है ।।५७-५८॥
प्रथम पृथिवीमें असुरकुमार आदि दसभवनवासी देवोंके भवनोंकी संख्या निम्न प्रकार जानना चाहिए-असुरकुमारोंके चौंसठ लाख, नागकुमारोंके चौरासी लाख, गरुड़कुमारोंके बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, मेधकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विद्युत्कुमार इन छह कमारोंके छिहत्तर लाख तथा वायकमारोंके छियानबे लाख भवन हैं। ये सब भवन श्रेणि रूपसे स्थित हैं तथा प्रत्येकमें एक-एक चैत्यालय हैं ॥५९-६१॥ पृथिवीके नीचे भूतोंके चौदह हजार और राक्षसोंके सोलह हजार भवन यथाक्रमसे स्थित हैं ॥६२॥ जहां मणिरूपी सूर्यको निरन्तर आभा फैली रहती है ऐसे पाताल लोकमें असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार ये दस प्रकारके भवनवासी देव यथायोग्य अपने-अपने भवनोंमें निवास करते हैं ॥६३-६५॥ उनमें असुरकुमारोंको उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक सागर, नागकुमारोंको तीन पल्य, सुपर्णकुमारोंकी अढ़ाई पल्य, द्वीपकुमारोंकी दो पल्य और शेष छह कुमारोंकी डेढ़ पल्य प्रमाण है ॥६६-६७|| असुरकुमारोंकी ऊँचाई पच्चीस धनुष, शेष नो प्रकारके भवनवासियों तथा व्यन्तरोंकी दस धनुष और ज्योतिषी देवोंकी सात धनुष है॥६८॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंकी ऊँचाई सात हाथ है। उसके आगे एक तथा आधा हाथ कम होते-होते सर्वार्थसिद्धि में एक हाथकी ऊंचाई रह जाती है। भावार्थ-पहले दूसरे स्वर्गमें सात हाथ, तीसरे चौथे स्वर्गमें छह हाथ, पाँचवें, छठवें, सातवें, आठवें स्वर्ग में पांच हाथ, नौवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें स्वर्गमें चार हाथ, तेरहवें, चौदहवेंमें साढ़े तीन हाथ, पन्द्रहवें-सोलहवें स्वर्गमें तीन हाथ, अधोग्रेवेयकोंमें अढ़ाई हाथ, मध्यम अवेयकोंमें दो हाथ, उपरि अवेयकोंमें तथा अनुदिश विमानोंमें डेढ़ हाथ और अनुत्तर विमानोंमें एक हाथ ऊँचाई है ॥६९॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब इसके आगे संक्षेपसे रत्नप्रभा आदि सातों भूमियोंके विलोंका यथाक्रमसे वर्णन करता हूँ सो सुन ॥७०॥
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