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हरिवंशपुराणे ततोऽधंरज्जुमानान्ते महाशुक्रायवर्तिनि । षट् सप्तभागसंयुक्तास्तिस्रो व्यासो जगद्गतः ॥२५॥ अर्धरज्ज्ववसानेऽतः सहस्रारान्तमिश्रिते । द्विसप्तभागसंयुक्ता व्यासस्तिस्रोऽस्य रजवः ॥२६॥ प्राणताग्रार्धरज्ज्वन्ते पञ्चसप्तांशमिश्रिते । द्वे रज जगतो व्यासो व्यासविद्भिः प्रकाशितः ॥२७॥ अच्युतान्तार्धरज्ज्वन्ते सप्तमागेन संमिते । द्वे रज रजु रेवान्तरज्ज्वन्ते लोकमस्तके ॥२८॥ अधोलोकोरुजङ्घादिस्तिर्यग्लोककटीतटः । ब्रह्मब्रह्मोत्तरोरस्को माहेन्द्रान्तस्तु मध्यभाग ॥२९।। आरणाच्युतसुस्कन्धो द्विपर्यन्तमहाभुजः । नवग्रेवेयकग्रीवोऽनुदिशोद्धहनुदयः ॥३०॥ पञ्चानुत्तरसद्वक्त्रः सिद्धक्षेत्रललाटभृत् । सिद्ध जीवश्रिताकाशदेशविस्तीर्णमस्तकः ॥३१॥ स्वोदरस्थितनिःशेषपुरुषादिपदार्थकः । अपौरुषेय एवैष सल्लोकपुरुषः स्थितः ॥३२॥ घनोदधिरिमं लोकं धनवातश्च सर्वतः । तनुवातश्च तिष्टन्ति योऽप्यावेष्ट्य वायवः ॥३३॥ आद्यो गोमूत्रवर्णोऽत्र मुदगवर्णस्तु मध्यमः । संपृक्तानेकवर्णोऽन्त्यो बहिर्वलयमारुतः ॥३४॥ दण्डाकारा घनीभूता ऊर्ध्वाधोभागभागिनः । भङ्गुराकृतयो लोकपर्यन्तेपु प्रभञ्जनाः ॥३॥ योजनानां सहस्राणि प्रत्येक विंशतिः स्मृताः । अधोविस्तारतस्तूवं त्रयोऽप्यूनैकयोजनाः ॥३६॥ दण्डाकारपरित्यागे यथाक्रमममी पुनः । सप्तपञ्चचतुःसंख्या योजनानि वितन्वते ॥३७॥ प्रदेशहानितः पञ्च चत्वारि त्रीणि च क्रमात् । बाहुल्यं योजनान्येषां तिर्यग्लोके भवत्यतः ॥३८॥
ण बतलाया गया है ॥२४॥ उसके आगे आधी रज्ज और चलकर जहाँ महाशक स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोकका विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें-से छह भाग प्रमाण कहा गया है ।।२५।। इसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ सहस्रार स्वर्गका अन्त आता है वहाँ लोकका विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें-से दो भाग प्रमाण बतलाया गया है ।।२६।। इसके आगे आधी रज्जु और चलकर जहां प्राणत स्वर्गका अन्त आता है वहाँ लोकका विस्तार दो रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमेंसे पाँच भाग प्रमाण कहा गया है ॥२७॥ इसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ अच्युत स्वर्ग समाप्त होता है वहां लोकका विस्तार दो रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें से एक भाग प्रमाण बतलाया है और इसके आगे सातवीं रज्जके अन्तमें जहाँ लोककी सीमा समाप्त होती है वहां लोकका विस्तार एक रज्ज प्रमाण कहा गया है ॥२८॥ तीनों लोकोंमें अधोलोक तो पुरुष की जंघा तथा नितम्बके समान है, तिर्यग्लोक कमरके सदृश है, माहेन्द्र स्वर्गका अन्त मध्य अर्थात् नाभिके समान है, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग छातीके समान है, तेरहवा, चौदहवाँ स्वर्ग भुजाके समान है, आरण-अच्युत स्वर्ग स्कन्धके समान है, नव ग्रैवेयक ग्रीवाके समान है, अनुदिश उन्नत डांडीके समान है, पंचानुत्तर विमान मुखके समान है, सिद्ध क्षेत्र ललाटके समान है और जहाँ सिद्ध जीवोंका निवास है ऐसा आकाश प्रदेश मस्तकके समान है ।।२९-३१॥ जिसके मध्यमें जीवादि समस्त पदार्थ स्थित है ऐसा यह लोकरूपी पुरुष अपौरुषेय ही है-अकृत्रिम ही है ॥३२॥ घनोदधि, घनवात और तनुवात ये तीनों वातवलय इस लोकको सब ओरसे घेरकर स्थित हैं ॥३३।। आदिका घनोदधि वातवलय गोमूत्रके वर्णके समान है, बीचका धनवातवलय मुंगके समान वर्णवाला है और अन्तका तनुवातवलय परस्पर मिले हुए अनेक वर्णोंवाला है ॥३४॥ ये वातवलय दण्डके आकार लम्बे हैं, घनीभूत हैं, ऊपर-नीचे तथा चारों ओर स्थित हैं, चंचलाकृति हैं तथा लोकके अन्त तक वेष्टित हैं ।।३५।। अधोलोकके नीचे तीनों वलयोंमें-से प्रत्येकका विस्तार बीस-बीस हजार योजन है और लोकके ऊपर तीनों वातवलय कुछ कम एक योजन विस्तारवाले हैं ॥३६॥ अधोलोकके नीचे तीनों वातवलय दण्डाकार हैं और ऊपर चलकर जब ये दण्डाकार का परित्याग करते हैं अर्थात् लोकके आजू-बाजूमें खड़े होते हैं तब क्रमशः सात, पाँच और चार योजन विस्तारवाले रह जाते हैं ॥३७॥ तदनन्तर प्रदेशोंमें हानि होते-होते मध्यम लोकके यहां इनका विस्तार क्रमसे पाँच,
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