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चतुर्थः सर्गः
सर्वतोऽनन्तविस्तारमनन्तस्वप्रदेशकम् । द्रव्यान्तरविनिर्मुक्तमलोकाकाशमिष्यते ॥१॥ न लोक्यन्ते यतस्तस्मिन् जीवाजीवात्मकाः परे । भावास्ततस्तदुद्गीतमलोकाकाशसंज्ञया ॥२॥ न गतिर्न स्थितिस्तत्र जीवपुद्गलयोस्तयोः । निमित्तयोरभूतत्वादु धर्माधर्मास्तिकाययोः ॥३॥ अनाद्यनिधनस्तस्य मध्ये लोको व्यवस्थितः। असंख्येयप्रदेशात्मा लोकाकाशविमिश्रितः ॥४॥ कालः पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपञ्चा इहाखिलाः । लोक्यन्ते येन तेनायं लोक इत्यभिलप्यते ॥५॥ [युग्मम्] वेत्रासनमृदङ्गोरुझल्लरीसदृशाकृतिः । अधश्चोर्ध्व च तिर्यक् च यथायोग्यमिति विधा ।।६॥ मुरजार्धमधोमागे तस्यो मुरजो यथा । आकारस्तस्य लोकस्य किं त्वेष चतुरस्रकः ॥७॥ कटिस्थकरयुग्मस्य वैशाखस्थानवर्तिनः । बिमर्ति पुरुषस्यायं संस्थानमचलस्थितेः ॥८॥ अधोलोकस्य सप्ताधः स्वविस्तारेण रजवः । प्रदेशहानितो रज्जुस्तिर्यग्लोकेऽवशिष्यते ॥९॥ ऊध्वं प्रदेशवृद्धयातः पञ्च ब्रह्मोत्तरान्तरे । ततः प्रदेशहान्योल रज्जुरेकावशिष्यते ॥१०॥ आयामस्तु त्रिलोकानां स्याच्चतुर्दशरजवः । सप्ताधो मन्दरादूर्ध्व सार्द्ध तेनैव सप्त ताः ॥११॥ चित्राधोभागतो रज्जुर्द्वितीयान्ते समाप्यते । द्वितीयातस्तृतीयान्ते चतुर्थ्यन्ते ततोऽपरा ॥१२॥ पञ्चम्यन्ते चतुर्थी च षष्टयन्ते पञ्चमी ततः । सप्तम्यन्ते च षष्ठी सा लोकान्ते सप्तमी स्थिता ॥१३॥
अथानन्तर सब ओरसे जिसका अनन्त विस्तार है, जिसके अपने प्रदेश भी अनन्त हैं तथा जो अन्य द्रव्योंसे रहित है वह अलोकाकाश कहलाता है ॥१॥ यतश्च उसमें जीवाजीवात्मक अन्य पदार्थ नहीं दिखाई देते हैं इसलिए वह अलोकाकाश इस नामसे प्रसिद्ध है ॥२॥ गति और स्थितिमें निमित्तभूत धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायका अभाव होनेसे अलोकाकाशमें जीव और पुद्गलकी न गति ही है और न स्थिति ही है ॥३॥ उस अलोकाकाशके मध्य में असंख्यातप्रदेशी तथा लोकाकाशसे मिश्रित अनादि लोक स्थित है ॥४॥ काल द्रव्य तथा अपने अवान्तर विस्तारसे सहित अन्य समस्त पंचास्तिकाय यतश्च इसमें दिखाई देते हैं इसलिए यह लोक कहलाता है ।।५।। यह लोक नीचे, ऊपर और मध्यमें वेत्रासन, मृदंग और बहुत बड़ी झालरके समान है अर्थात् अधोलोक वेत्रासन-मूंठाके समान है, ऊर्ध्वलोक मृदंगके तुल्य है और मध्यलोक जिसे तिर्यक् लोक भी कहते हैं झालरके समान है ॥६।। नीचे आधा मृदंग रखकर उसपर यदि पूरा मृदंग रखा जाये तो जैसा आकार होता है वैसा ही लोकका आकार है किन्तु विशेषता यह है कि यह लोक चतुरस्र अर्थात् चौकोर है ।।७।। अथवा कमरपर हाथ रख तथा पैर फैलाकर अचल-स्थिर खड़े हुए मनुष्यका जो आकार है उसी आकारको यह लोक धारण करता है ।।८।। अपने विस्तारको अपेक्षा अधोलोक नीचे सात रज्जु प्रमाण है, फिर क्रम-कमसे प्रदेशोंमें हानि होते-होते मध्यम लोकके यहाँ एक रज्जु विस्तृत रह जाता है ।।९।। इसके ऊपर प्रदेशवृद्धि होते-होते ब्रह्मब्रह्मोत्तर स्वर्गके समीप पांच रज्जु प्रमाण है। तदनन्तर उसके आगे प्रदेशहानि होते-होते लोकके अन्तमें एक रज्जु प्रमाण विस्तृत रह जाता है ।।१०।। तीनों लोकोंको लम्बाई चौदह रज्जु प्रमाण है। सात रज्जु सुमेरु पर्वतके नीचे और सात रज्जु उसके ऊपर है ।।११।। चित्रा पृथिवीके अधोभागसे लेकर द्वितीय पृथिवीके अन्त तक एक रज्जु समाप्त होती है, इसके आगे तृतीय पृथिवीके अन्त तक द्वितीय रज्जु, चतुर्थ पृथिवीके
१. पदार्थाः । २. अविद्यमानत्वात् । ३. प्रसारितजङ्घाद्वयोर्ध्वस्थितस्य । Jain Education International
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