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हरिवंशपुराणे अथ दिव्यध्वनेरन्ते जैनस्य तदनन्तरम् । चक्रुस्तदनुसंधानं देवा दुन्दुमिनिःस्वनाः ॥१८॥ पुष्पवृष्टिं प्रवर्षन्तो रस्नवृष्टिं च तुष्टुवुः । देवास्तत्र वनोद्देशे मुहुश्चैकं महामुनिम् ॥१८॥ तं निशम्य मुनिश्रेष्ठं पूज्यमानं सुरेश्वरैः । श्रेणिको गौतमं नत्वा पप्रच्छ बहुविस्मयः ॥१८३॥ भगवन् ! ब्रूहि किनामा मुनिः सुरगणैरयम् । पूज्यते पूज्य ! किंवंशः प्राप्तो वाऽद्य किमद्भुतम् ॥१८॥ गदतिस्म ततस्तस्मै विस्मिताय गतस्मयः । आगमानुमितिज्ञाप्यविज्ञेयः श्रुतकेवली ॥१८५॥ श्रीमनोऽस्य महाराज ! शृणु श्रेणिक सन्मतेः । मुने म च वंशं च माहात्म्यं च वदामि ते ॥१८६॥ जितशत्रः क्षितौ ख्यातो धरित्रीपतिरत्र यः । प्राप्त एव धरित्रीश! भवतः श्रोत्रगोचरम् ॥१८७॥ हरिवंशनभोभानुरभिमतनृपस्थितिः। राज्य श्रियं परित्यज्य प्रावाजीजिनसंनिधौ ॥१८॥ तपो दुष्करमन्येषां बाह्यमाध्यात्मिकं च सः । कृत्वा प्राप्तोऽद्य घात्यन्ते केवलज्ञानमदभुतम् ॥१८९॥ तेनायममरैः सर्वैर्जनमार्गोपवृंहकैः । स पुनर्बोधिलामार्थ भक्तितोऽत्यर्चितो यतिः ॥१९॥ पुनः प्रगम्य भक्त्याऽसौ समुतकुतूहलः । पृच्छति स्म गणाधीशमिति श्रेणिकभपतिः ॥१९॥ क एष भगवान् ! वंशो हरिशब्दोपलक्षितः । जातः कदा क्व वा कीर्त्यः को वास्य प्रभवः पुमान् ॥१९२॥ केयन्तः समतिक्रान्ताः प्रजारक्षणदक्षिणाः । धर्मार्थकाममोक्षाढ्या हरिवंशक्षितीश्वराः ॥१९३।। इह भारतजातानां जिनानां चक्रवर्तिनाम् । हलिनां वासुदेवानां तथा चैषां प्रतिद्विषाम् ॥१९॥
प्रकार जिनेन्द्र भगवानको सद्धर्मदेशना जगत्त्रयके जीवोंकी समस्त भ्रान्तिको शान्त कर देती है ।।१८०॥ अथानन्तर जिनेन्द्र भगवान्की दिव्यध्वनिके बाद देवोंने उसका अनुसन्धान किया। तथा कुछ देव, दन्दभिके समान शब्द करते, पुष्पवृष्टि एवं रत्नवष्टि करते हए वनके एक देशमें स्थित एक महामुनिकी स्तुति करने लगे ।।१८१-१८२।। इन्द्रोंके द्वारा पूजित उन श्रेष्ठ मुनिका नाम सुनकर अत्यधिक आश्चर्यसे युक्त राजा श्रेणिकने गौतम स्वामीको नमस्कार कर पूछा ॥१८३।। कि हे भगवन् ! हे पूज्य ! कृपा कर कहिए कि देव लोग जिनको पूजा कर रहे हैं ऐसे ये मुनि किस नामके धारक हैं ? इनका क्या वंश है ? और आज किस अतिशयको प्राप्त हुए हैं ? ॥१८४|| तदनन्तर जिनका अहंकार नष्ट हो गया था और जिन्होंने आगम तथा अनुमानके द्वारा जानने योग्य पदार्थों को जान लिया था ऐसे श्रुतकेवली श्रीगौतम स्वामी, आश्चर्यसे भरे हुए राजा श्रेणिकसे कहने लगे कि ।।१८५।। हे महाराज श्रेणिक ! मैं सद्बुद्धिके धारक इन श्रीमान् मुनिराजका नाम, वंश और माहात्म्य सब तुम्हारे लिए कहता हूँ सो श्रवण कर ॥१८६॥ हे पृथिवीपते ! इस पृथिवीपर जो जितशत्रु नामका प्रसिद्ध राजा था वह आपके कर्णगोचर हुआ होगा ॥१८७।। जो हरिवंशरूपी आकाशका सूर्य था, जिसने अन्य राजाओंकी स्थितिको अभिभूत कर दिया था, जिसने राज्यलक्ष्मीका परित्याग कर जिनेन्द्रदेवके समीप प्रव्रज्या-दीक्षा धारण की थी तथा जिसने अन्य लोगोंके लिए कठिन बाह्य और आभ्यन्तर तप किया था आज वही राजा जितशत्रु घातिया कर्मोको नष्ट कर आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त हुआ है ॥१८८-१८९॥ इसीलिए जिनमार्गकी प्रभावना करनेवाले समस्त देवोंने मिलकर रत्नत्रयकी प्राप्तिके लिए भक्तिपूर्वक इन मुनिराजकी पूजा की है ।।१९०॥
___ तदनन्तर जिसे कुतूहल उत्पन्न हो रहा था ऐसे श्रेणिक राजाने भक्तिपूर्वक पुनः प्रणाम कर गणधरसे इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह हरिवंश कौन है ? कब और कहां उत्पन्न हुआ है ? तथा इसका मूल कारण कौन पुरुष है ? ॥१९१-१९२।। प्रजाको रक्षा करने में समर्थ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसे सहित ऐसे हरिवंशमें कितने राजा हो चुके हैं ? ||१९३।। यह कह १. गतगर्वः । २. आगमानुमानेन ज्ञाप्यो ज्ञातव्यो ज्ञेयो यस्य स. । ३. घातिकर्मक्षयानन्तरम् । ४. उत्पद्योत्पद्य गताः ।
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