________________
हरिवंशपुराणे
भायुः शुक्रमहाशुक्रकल्पयोः षोडशाब्धयः । शतारे च सहस्रारे तथाऽष्टादश सागराः ॥१५॥ विंशत्यब्धिसमायुष्का आनतप्राणतामराः । आरणाच्युतयोदेवा द्वाविंशत्यब्धिजीविनः ॥१५५॥ एकोत्तरा तु वृद्धिः स्यान्नषवेयकेष्वियम् । उत्कृष्टस्थितिरेषो साधिका त्वपरा स्थितिः ।।१५६॥ नवस्वनुदिशेषु स्याद् द्वात्रिंशत्सागरोपमा । परा स्थिति धन्या स्यादेकत्रिंशत्पयोधयः ॥१५॥ त्रयस्त्रिंशदुदन्वन्तः पराऽनुत्तरपञ्चके । सर्वार्थसिद्धितोऽन्यत्र द्वात्रिंशदधरा स्थितिः ॥१५॥ पल्यानि पञ्च सौधर्मे देवीनां परमा स्थितिः । आसहस्रारकल्पात्तु तान्येव द्वयधिकानि तु ॥१५९॥ ततः सप्तमिराधिक्ये पञ्च पञ्चाशदुच्यते । पल्यानि स्वल्पकालास्ताः परतस्तु न योषितः ।।१६०॥ उपपादश्च सर्वासा कर्मशक्तिनियोगतः । कल्पवासीसुरस्त्रीणामाये कल्पद्वये सदा ॥१६॥ ज्योतिषो भावना भौमाः सौधर्मशानवासिनः । देवाः कायप्रवीचारास्तीवमोहोदयत्वतः ॥१६॥ सानस्कुमारमाहेन्द्रकल्पद्वयसमुद्भवाः । देवाः स्पर्शप्रवीचाराः मध्यमोहोदयत्वतः ॥१६३॥ ब्रह्मब्रह्मोत्तरोद्भूताः कान्ताः लान्तवकल्पजाः । देवा रूपप्रवीचाराः कापिष्टप्रभवास्तथा ॥१६॥ देवाः शुक्रमहाशुक्रशतारस्थितयस्तथा । सहस्रारोद्भवाः शब्दप्रवीचारा भवन्त्यमी ॥१५॥ आनतप्राणतोद्भता आरणाच्युतवासिनः । देवा मनःप्रवीचारा मन्दमोहोदयत्वतः ॥१६॥ परतस्त्वप्रवीचारा यावरसर्वार्थसिद्धिजाः । शमप्रधानशर्माख्या मोहाव्यक्तोदयस्वतः ।।१६७॥
कापिष्ट स्वर्गमें कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र-महाशुक्र स्वर्गमें कुछ अधिक सोलह सागर, शतारसहस्रारमें कुछ अधिक अठारह सागर, आनत-प्राणत स्वर्ग में बीस सागर और आरण-अच्युत स्वर्गमें बाईस सागर प्रमाण आयु है ॥१५२-१५५।। नव ग्रैवेयकोंमें एक-एक सागर बढ़ती हुई आयु है अर्थात् प्रथम ग्रेवेयकमें बाईस सागरकी आयु है और आगेके ग्रेवेयकोंमें एक-एक सागरकी बढ़ती हुई नौवें ग्रैवेयकमें इकतीस सागरकी हो जाती है। पूर्व-पूर्व स्वर्गोंकी जो उत्कृष्ट स्थिति है वही एक समय अधिक होनेपर आगे-आगेके स्वर्गोंकी जघन्य स्थिति होती है ॥१५६॥ नव अनुदिशोंमें बत्तीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है और एक समय अधिक इकतीस सागर जघन्य स्थिति है ॥१५७|| पंच अनुत्तर विमानोंमें तैंतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है और सर्वार्थसिद्धिको छोड़कर बाकी चार अनुत्तरोंमें जघन्य स्थिति एक समय अधिक बत्तीस सागर प्रमाण है। सर्वार्थसिद्धि में जघन्य स्थिति नहीं होती, वहां सब एक ही समान स्थितिके धारक होते हैं ॥१५८॥ सौधर्म स्वर्गमें देवियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पांच पल्य प्रमाण है। उसके आगे सहस्रार स्वर्ग तक प्रत्येक स्वर्गमें दोदो सागर अधिक है । उसके आगे सात-सात सागर अधिक है। इस तरह सोलहवें स्वर्गमें पचपन पल्यकी आयु है। उसके आगे स्त्रियोंका सद्भाव नहीं है ॥१५९-१६०॥ कर्मोंको सामर्थ्यसे समस्त कल्पवासिनी देवियोंका उत्पाद सदा पहले और दूसरे स्वर्ग में ही होता है ॥१६१॥ मोहका तीव्र उदय होनेसे ज्योतिषी, भवनवासी, व्यन्तर और सौधर्म तथा ऐशान स्वर्गके निवासी देव कामसे मैथुन करते हैं ।।१६२।। मोहका मध्यम उदय होनेसे सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देव स्पर्श मात्रसे प्रवीचार करते हैं अर्थात वहाँके देव-देवियोंकी कामबाधा परस्परके स्पर्श मात्रसे शान्त हो जाती है ॥१६३॥ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ट स्वर्गके देव, रूप मात्रसे प्रवीचार करते हैं अर्थात् वहांके देव-देवियोंका रूप देखने मात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं ।।१६४॥ शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्गके देव शब्दसे प्रवीचार करते हैं । अर्थात् वहाँके देव-देवियोंके शब्द सुनने मात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥१६५।। मोहका उदय अत्यन्त मन्द होनेसे आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गके देव मनसे प्रवीचार करते हैं । अर्थात् वहाँके देव मनमें देवियोंका ध्यान आने मात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं ।।१६६॥ उसके आगे सर्वार्थसिद्धि तकके देव मोहका उदय अव्यक्त होनेसे प्रवीचार रहित हैं अर्थात् उन्हें कामकी बाधा उत्पन्न ही नहीं होती। वहाँके अहमिन्द्र शान्ति प्रधान सुखसे युक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org