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तृतीयः सर्गः
४१ शृणोमि चरितं सर्व वंशानां च समुद्भवम् । लोकालोकविभागोक्तिपूर्वकं वक्तुमर्हसि ॥१९५॥ जगाद गौतमः स्थाने राजन् ! प्रश्नस्त्वया कृतः । शृणु सर्व यथावत्ते कथयामि यथायथम् ॥१९६॥
शार्दूलविक्रीडितम् त्रैलोक्यस्य सुखासुखानुभवनाधिष्ठानभूमेः स्थिरं,
संस्थानं प्रथमं तथैव विविधान् बंशावतारांस्तव । श्रव्याथ हरिवंशसंभवमतस्तद्वंशजान् भूपतीन्,
श्रीमच्छणिक ! कीर्तयामि भवते शुश्रूषवे श्रूयताम् ॥१९७॥
स्रग्धरा भव्यत्वाद्विप्रकृष्टेष्वपि च तनुभृतो देशकालस्वभाव
र्भावेष्वाप्तोपदेशाद्विदधति विधिवन्निश्चयं निश्चितार्थम् । सदृष्टीनां हि मोहः प्रमवति भुवने तावदेवार्थदृष्टौ
यावन्नात्राभ्युदेति प्रथितजिनरविर्ज्ञानभास्वन्मरीचिः ॥१९८॥
इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती श्रेणिकप्रश्नवर्णनो
नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥
राजा श्रेणिकने पुनः कहा कि मैं इस भरत क्षेत्रमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलभद्रों, नारायणों और प्रतिनारायणोंका समस्त चरित, वंशोंकी उत्पत्ति और लोकालोकका विभाग सुनना चाहता हूँ सो आप कहनेके योग्य हैं ॥१९४-१९५।।
यह सुन, गौतम स्वामीने कहा कि हे राजन् ! तूने ठीक प्रश्न किया है तू सब ठीक-ठीक श्रवण कर। मैं यथायोग्य कहता हूँ ॥१९६|| हे श्रीमन् ! हे श्रेणिक! मैं सर्वप्रथम सुख-दुःख भोगनेके स्थानभूत तीन लोकका स्थिर आकार कहता हूँ। फिर विविध वंशोंके अवतारकी बात करूंगा। तदनन्तर मनोहर अर्थसे युक्त हरिवंशकी उत्पत्ति कहूँगा और तत्पश्चात् श्रवण करनेके इच्छुक तेरे लिए हरिवंशमें उत्पन्न हुए राजाओंका कीर्तन करूंगा ॥१९७|| भव्य जीव, श्रीआप्त भगवान्के उपदेशसे देश-काल और स्वभावसे दूरवर्ती पदार्थोंका भी विधिवत् यथार्थ निश्चय कर लेते हैं। यथार्थमें सम्यग्दृष्टि मनुष्योंका मोह, इस संसारमें पदार्थों का ठीक-ठीक स्वरूप देखनेमें तभी तक अपना प्रभाव रख पाता है जबतक कि ज्ञानरूपी देदीप्यमान किरणोंसे युक्त श्रीजिनेन्द्र देवरूपी सूर्यका उदय नहीं होता ।।१२८।। इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमिके पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे श्रीजिनसेनाचार्य प्रणीत
हरिवंश पुराण में श्रेणिकप्रश्न वर्णन नामका तृतीय सर्ग समाप्त हुआ ॥३॥
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१. युक्तः । २. भव्यत्वादिप्रकृष्टे-म.।
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