Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [47 उत्पन्न नहीं होते। सदा अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाले होने से मिश्रदृष्टि भी उनमें नहीं पाई जाती। न मिश्रदृष्टि वाला ही उनमें उत्पन्न होता है / क्योंकि मिश्रदृष्टि में कोई काल नहीं करता।' 14. वर्शनद्वार-सामान्यविशेषात्मक वस्तु के सामान्यधर्म को ग्रहण करने वाला अवबोध दर्शन कहलाता है / यह चार प्रकार का है-१. चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन / चक्षुर्दर्शन सामान्य-विशेषात्मक वस्तु के रूप सामान्य को चक्षु द्वारा ग्रहण करना चक्षुर्दर्शन है। अचक्षुर्दर्शन-चक्षु को छोड़कर शेष इन्द्रियों और मन द्वारा सामान्यधर्म को जानना अचक्षुर्दर्शन है। अवधिदर्शन---इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी सामान्य को जानना अवधिदर्शन है। केवलदर्शन-सकल संसार के पदार्थों के सामान्य धर्मों को जानने वाला केवलदर्शन है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के इन चार दर्शनों में से एक अचक्षुर्दर्शन पाया जाता है / स्पर्शनेन्द्रिय को अपेक्षा प्रचक्षुर्दर्शन है, अन्य कोई दर्शन उनमें नहीं होता। 15. ज्ञानद्वार-वैसे तो वस्तु-स्वरूप को जानना ही ज्ञान कहलाता है परन्तु शास्त्रकारों ने वही ज्ञान ज्ञान माना है जो सम्यक्त्वपूर्वक हो / सम्यक्त्वरहित ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि के तो ज्ञानरूप हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि के मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान हो जाते हैं / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मिथ्यादष्टि हैं, अतएव उनमें ज्ञान नहीं माना गया है और निश्चित रूप से मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान माना गया है / यह मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान भी अन्य बादर आदि जीवों की अपेक्षा अत्यन्त अल्प मात्रा में होता है / / 16. योगद्वार–मन, वचन और काया के व्यापार (प्रवृत्ति) को योग कहते हैं / ये योग तीन प्रकार के हैं—मनयोग, वचनयोग और काययोग / उन तीन योगों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के केवल काययोग ही होता है / वचन और मन उनके नहीं होता। 17. उपयोगद्वार-आत्मा की बोधरूप प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं / उपयोग दो प्रकार का है-साकार-उपयोग और अनाकार-उपयोग / 1. न सम्ममिच्छो कुणइ कालं--इति वचनात् / 2. सर्व निकृष्टो जीवस्य दृष्ट: उपयोग एष बीरेण / सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः // 1 // तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृद्धिदृण्टा जिनेन जीवानाम् / लब्धिनिमिस: करण : कायेन्द्रियवाग्मनोदग्भिः // 2 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org