________________ तृतीय प्रतिपत्ति: बनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन] [365 उन प्रालिघरों यावत् आदर्शधरों में बहुत से हंसासन यावत् दिशास्वस्तिकासन रखे हुए हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् सुन्दर हैं / उस वनखण्ड के उन उन स्थानों और भागों में बहुत से जाई (चमेली के फूलों से लदे हुए मण्डप (कुंज) हैं, जूही के मण्डप हैं, मल्लिका के मण्डप हैं, नवमालिका के मण्डप हैं, वासन्तीलता के मण्डप हैं, दधिवासुका नामक वनस्पति के मण्डप हैं, सूरिल्ली-वनस्पति के मण्डप हैं, तांबूलीनागवल्ली के मण्डप हैं, मुद्रिका-द्राक्षा के मण्डप है, नागलतामण्डप, प्रतिमूक्तकमण्डप, अप्फोयावनस्पति विशेष के मण्डप, मालुकामण्डप (एक गुठली वाले फलों के वृक्ष) और श्यामलतामण्डप हैं।' ये नित्य कुसुमित रहते हैं, मुकुलित रहते हैं, पल्लवित रहते हैं यावत् ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। ___ उन जाइमण्डपादि यावत् श्यामलतामण्डपों में बहुत से पृथ्वी शिलापट्टक हैं, जिनमें से कोई हंसासन के समान है (हंसासन की आकृति वाले हैं), कोई क्रौंचासन के समान हैं, कोई गरुड़ासन की प्राकृति के हैं, कोई उन्नतासन के समान हैं, कितनेक प्रणतासन के समान हैं, कितनेक भद्रासन के समान, कितनेक दीर्घासन के समान, कितनेक पक्ष्यासन, के समान हैं, कितनेक मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन के समान हैं और कितनेक दिशा-स्वस्तिकासन के समान हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ पर अनेक पृथ्वीशिलापट्टक जितने विशिष्ट चिह्न और नाम हैं तथा जितने प्रधान शयन और आसन हैं-उनके समान प्राकृति वाले हैं। उनका स्पर्श आजिनक (मृगचर्म), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन तथा हंसतूल के समान मुलायम है, मृदु है / वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) हैं। वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां सुखपूर्वक विश्राम करती हैं, लेटती हैं, खड़ी रहती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, इच्छानुसार आचरण करती हैं, क्रीडा करती हैं, रतिक्रीडा करती हैं / इस प्रकार वे वानव्यन्तर देवियां और देव पूर्व भव में किये हुए धर्मानुष्ठानों का, तपश्चरणादि शुभ पराक्रमों का अच्छे और कल्याणकारी कर्मों के फलविपाक का अनुभव करते हुए विचरते हैं। 126. (5) तीसे णं जगतीए उप्पि अंतो पउमवरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं वेदिया समएणं परिक्खेवेणं किन्हे किण्होभासे वणसंडवण्णओ तणमाणिसद्दविहूणो णेयम्वो / तत्थ गं बहवे बाणमंतरा देवा देवीमो य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीयंति तयटॅति रमंति ललंति कोडंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति / उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के अन्दर के भाग में एक बड़ा वनखंड कहा गया है, जो कुछ कम दो योजन विस्तारवाला वेदिका के परिक्षेप के समान परिधि वाला है / जो काला और 1. वृति में 'सामलयामंडवा' पाठ नहीं है। 2. क्वचित् 'मांसलसुघुटुविसिट्ठसंठाणसंठिया' पाठ भी है। वे शिलापट्टक मांसल हैं—कठोर नहीं हैं, अत्यन्त स्निग्ध हैं और विशिष्ट प्राकृति वाले हैं। 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org