________________ 396] जिीवाजोवाभिगमसूत्र उठती-बैठती हैं यावत् पुराने कर्मों का फल भोगती हुई विचरती हैं / उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ा उपकारिकालयन'--विश्रामस्थल कहा गया है जो बारह सौ योजन का लम्बा-चौड़ा और तीन हजार सात सौ पिचानवे योजन से कुछ अधिक की उसकी परिधि है। प्राधा कोस (एक हजार धनुष) की उसकी मोटाई है / वह पूर्णतया स्वर्ण का है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है / ___ वह उपकारिकालयन एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्ठित है। पद्मवरवेदिका का वर्णनक और वनखंड का वर्णनक कहना चाहिए यावत् यहाँ वानव्यन्तर देव-देवियां कल्याणकारी पुण्यफलों का अनुभव करती हुई विचरती हैं। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चक्रवाल विष्कंभ वाला (घेरे वाला) और उपकारिकालयन के परिक्षेप के तुल्य (3795 योजन से कुछ अधिक) परिक्षेप वाला है। उस उपकारिकालयन के चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उनका वर्णनक कहना चाहिए। उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के आगे अलग-अलग तोरण कहे गये हैं यावत् छत्रों पर छत्र हैं। उस उपकारिकालयन के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् वह मणियों से उपशोभित है। मणियों का वर्णनक कहना चाहिए। मणियों के गंध, रस और स्पर्श का कथन कर लेना चाहिए / उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक बड़ा मूल प्रासादावतंसक कहा गया है / वह प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन का ऊँचा और इकतीस योजन एक कोस की लंबाई-चौड़ाई वाला है / वह सब ओर से निकलती हुई प्रभाकिरणों से हँसता हुआ-सा लगता है आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / उस प्रासादावतंसक के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा है यावत् मणियों का स्पर्श और भीतों पर विविध चित्र हैं। उस बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधा योजन की मोटाई वाली है। वह सर्वमणिमय, स्वच्छ और मृदु है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है / सिंहासन का सपरिवार वर्णनक कहना चाहिए / उस प्रासादावतंसक के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक अन्य उनसे आधी ऊँचाई वाले चार प्रासादावतंसकों से सब अोर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक इकतीस योजन एक कोस की ऊँचाई वाले साढे पन्द्रह योजन और प्राधा कोस के लम्बे-चौड़े, किरणों से युक्त आदि वैसा ही वर्णन कर लेना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग यावत् चित्रित भीतरी छत है। उन बहुसमरमणीय भूमिभाग के बहुमध्यदेशभाग में प्रत्येक में अलग-अलग सिंहासन हैं / सिंहासन का वर्णनक कहना चाहिए। उन सिंहासनों के परिवार के तुल्य वहाँ भद्रासन' कहे गये हैं। इन प्रासादावतंसकों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। 1. वृत्तिकार ने 'राजधानी के प्रासादावतंसकादि की पीठिका' ऐसा अर्थ करते हुए लिखा है कि अन्यत्र इसे 'उपकार्योपकारका' कहा है। कहा है-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारका' इति / 2. वृत्ति में कहा गया है कि 'नवरमा सिंहासनानां शेषाणि परिवार भूतानि न वक्तव्यानि / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org