________________ सर्वजीवाभिगम [195 सादि-अपर्यवसित अकषायी का अन्तर नहीं है / सादि-सपर्यवसित अकषायी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल के बाद पुनः श्रेणीलाभ हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। पूर्व-अनुभूत अकषायित्व की इतने काल में पुनः नियम से प्राप्ति होती ही है। अल्पबहुत्वद्वार—सबसे थोड़े अकषायी, क्योंकि सिद्ध ही अकषायी हैं। उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोद-जीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं। उनसे क्रोधकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्रोधकषाय का उदय चिरकालस्थायी है, उनसे मायाकषायी विशेषाधिक हैं और उनसे लोभकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि माया और लोभ का उदय चिरतरकाल स्थायी है। 249. अहवा पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा–णेरड्या तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा / संचिट्ठणंतराणि जह हेट्ठा भणियाणि / अप्पाबहुयं सम्वत्थोवा मणुस्सा, रइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिया अणंतगुणा / . सेत्तं पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। 249. अथवा सब जीव पांच प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध / संचिट्ठणा और अन्तर पूर्ववत् कहना चाहिए। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनुष्य, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं / इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व पहले कहा जा चुका है। इस तरह पंचविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई / सर्वजीव-षड्विध-वक्तव्यता 250. तत्थ णं जेते एवमाहंसु छब्विहा सव्यजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा- आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी अण्णाणी। प्राभिणिबोहियणाणी णं भंते ! प्राभिणिबोहियणाणित्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं छाढि सागरोवमाइं साइरेगाई, एवं सुयणाणीवि / ओहिणाणी णं भंते! * ? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छाढि सागरोवमाई साइरेगाई। मणपज्जवणाणी णं भंते! * ? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुन्यकोडी। केवलणाणी णं भंते०!? साइए अपज्जवसिए। अण्णाणिणो तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए / तत्थ साइए सपज्जवसिए जहन्नेणं अंतो० उक्को० अणंतकालं अवड्ढे पुग्गलपरियटै देसूणं / / ___ अंतरं आभिणिबोहियणाणिस्स जह• अंतो०, उक्को० अणंतं कालं अवड्ड पुग्गलपरियझे देसूर्ण। एवं सुयणाणिस्स प्रोहिणाणिस्स मणपज्जवणाणिस्स अंतरं। केवलणाणिणो पत्थि अंतरं / अण्णाणिस्स साइयपज्जवसियस्स जह० अंतो०, उक्को० छावटि सागरोवमाई साइरेगाई / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org