________________ 206 / / जीवाजोवानिगमन सर्वजीव-नवविध-वक्तव्यता 256. तत्य गं जेते एवमाहंमु णवविधा सम्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु तं जहाएगिविया बॅविया तेंदिया चरिदिया गेरइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा देवा सिद्धा। एगिदिए गं भंते ! एगिदिएत्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा! जहणणं अंतोमहत्तं उक्कोणं गणस्सइकालो। दिए णं भंते !.? जहण्णणं अंतीमुहत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं / एवं तेइंदिएवि, चरिदिएवि / रइए णं भंते ! ? जहण्णणं बस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। पंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! 0? जह० अंतो०, उक्कोसणं तिणि पलिप्रोकमाई पुग्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाई। एवं मणूसेवि / देवा जहा रइया। सिद्धे गंभंते! .?साइए अपज्जवसिए। एगिदियस्स गं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्को० दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई। बेंविधस्स मंते ! अंतरं कालो केवचिरं होई ? गोयमा ! जह. अंतो, उक्को० वणस्सइकालो। एवं तेंवियस्सवि चरिवियस्सवि णेरइयस्सवि पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्सवि मणूसस्सवि देवस्सवि सन्वेसि एवं अंतरं भाणियव्वं / सिद्धस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! साइयस्स अपज्जवसियस्स णथि अंतरं / एएसि णं भंते ! एगेंदियाणं बंदियाणं तेंदियाणं चरिदियाणं गैरइयाणं पर्चेदियतिरिक्खजोणियाणं मणुसाणं देवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहितो०? गोयमा ! सम्वत्थोवा मणुस्सा, गेरझ्या असंखेज्जगुगा, देवा असंखेज्जगुणा, पंचेंदियातिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, धरिदिया विसेसाहिया, तेंदिया बिसेसाहिया, बेंदिया विसेसाहिया, सिद्धा अणंतगुणा, एगिविया अणंतगुणा / 256. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, वे नौ प्रकार इस तरह बताते हैंएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध / भगवन् ! एकेन्द्रिय, एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है। द्वीन्द्रिय जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयकाल तक रहता है। श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी इसी प्रकार कहने चाहिए। भगवन् ! नैरयिक, नैरयिक के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम तक रहता है। पंचेन्द्रियतिर्यंच जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है / इसी प्रकार मनुष्य के लिए भी कहना चाहिए / देवों का कथन नैरयिक के समान है / सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने के सदा उसी रूप में रहते हैं। भगवन् ! एकेन्द्रिय का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है / द्वीन्द्रिय का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य और देव-सबका इतना ही अन्तर है / सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से उनका अन्तर नहीं होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org