Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
________________ 210] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयतिय च असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे अप्रथमसमयतिर्य ग्योनिक अनन्तगुण हैं। इस प्रकार सर्वजीवों की नवविधप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-इनकी युक्ति और भावना पूर्व में प्रतिपादित की जा चुकी है। सर्वजीव नवविधप्रतिपत्ति पूर्ण / सर्वजीव-दसविध-वक्तव्यता 258. तत्थ णं जेते एवमाहंसु दस विहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहा उकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया बंदिया तेंदिया चारिदिया पंचेंदिया अणिदिया। पुढविकाइया णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! जह• अंतो०, उक्को० असंखेज्जं कालं-असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ ओप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोया। एवं आउ-तेउ-वाउकाइए। षणस्सइकाइए णं भंते ! * ? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्को०, वणस्सइकालो। बॅदिए णं भंते! 0? जह० अंतो०, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं / एवं तेइंदिएथि, चरिदिएवि। पंचिदिए णं भंते ! 0? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगे। अणिदिए ण भंते ! 0? साइए अपज्जवसिए / पुढविकाइयस्स णं भंते ! अंतरं कालो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्को. वणस्सइकालो। एवं आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स / वणस्सइकाइयस्स णं भंते ! अंतरं कालओ०? जा चेव पुढविकाइयस्स संचिटणा, विय-तियचरिदिया-पंचेंदियाणं एएसि चउण्हपि अंतरं जह० अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो। अणिदियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! साइयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं। एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं पाउ-तेउ-बाउ-वण-उदियाणं तेंदियाणं रिदियाणं पंचेंदियार्ण अणिदियाण य कयरे कयरेहितो? गोयमा ! सम्वत्थोवा पंचेंदिया, चरिदिया विसेसाहिया, तेंदिया विसेसाहिया, बॅदिया विसेसाहिया, तेउकाइया असंखेज्जगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, धाउकाइया विसेसाहिया, अणिदिया अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा / 258. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव दस प्रकार के हैं, वे इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
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