Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 715
________________ 204] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दोवि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगणाणी असंखेज्जगुंणा, केवलणाणिणो अणंतगुणा, मइअण्णाणी सुयनप्रणाणी य दोवि तुल्ला अणंतमुणा / 254. जो ऐसा कहते हैं कि आठ प्रकार के सर्व जीव हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीव प्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी के भेद से आठ प्रकार के हैं। भगवन् ! अाभिनिबोधिकज्ञानी भाभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। श्रुतज्ञानी भी इतना ही रहता है। अवधिज्ञानी जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है / मनःपर्यायज्ञानी जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है। केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहता है। मति-अज्ञानी तीन प्रकार के हैं.-१. अनादि-अपर्यवसित, 2. अनादि-सपर्यवसित और 3. सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप तक रहता है / श्रुत-अज्ञानी भी इतने ही समय तक रहता है। विभंगज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक रहता है / आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतमुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन पुद्गलपरावर्त रूप है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अंतर भी जानना चाहिए। केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह सादि-अपर्यवसित है। मति-अज्ञानियों में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है। जो अनादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है। जो सादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। इसी प्रकार श्रुत-अज्ञानी का अन्तर भी जानना चाहिए / विभंगशानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। भगवन् ! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं। उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे मति-अज्ञानी श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं / विवेचन-इसका विवेचन सर्व जीव की छठी प्रतिपत्ति में किया जा चुका है। अतएव जिज्ञासु वहां देख सकते हैं। 255. अहवा अविहा सम्वजीया पण्णता, तं जहा–णेरइया तिरिक्खजोणिया तिरिक्तजोणिणोओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ सिद्धा। णेरइए णं भंते ! रइएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जहणेणं वसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोयमाई। तिरिक्खजोणिए णं भंते ! 0? जह• अंतो० उक्कोसेणं वणस्सइ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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