________________ सजीवाभिगम [203 अल्पबहुत्यद्वार-सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले हैं, क्योंकि लान्तक आदि देव, पर्याप्त गर्भज कतिपय पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों में ही शुक्ललेश्या होती है। उनसे पद्मलेश्या वाले संख्येयगुण हैं, क्योंकि सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में सब देव और प्रभूत पर्याप्त गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में पद्मलेश्या होती है। यहां शंका हो सकती है कि लान्तक आदि देवों से सनत्कुमारादि कल्पत्रय के देव असंख्यातगुण हैं, तो शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या वाले असंख्यातगुण होने चाहिए, संख्येयगुण क्यों कहा? समाधान दिया गया है कि जवन्यपद में भी असंख्यात सनत्कुमारादि कल्पत्रय के देवों की अपेक्षा से असंख्येयगुण पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में शुक्ललेश्या होती है / अत: पद्मलेश्या वाले शुक्ललेश्या वालों से संख्यातगुण ही प्राप्त होते हैं / उनसे तेजोलेश्या वाले संख्येयगुण हैं, क्योंकि उनसे संख्येयगुण तिर्यक् पंचेन्द्रियों, मनुष्यों और भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या पायी जाती है। उनसे अलेश्य अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे कापोतलेश्या वाले अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से अनन्तगुण वनस्पतिकायिकों में कापोतलेश्या का सदभाव है। उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं। उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्लिष्टतर अध्यवसाय वाले प्रभूत होते हैं। यह सप्तविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-अष्टविध-वक्तव्यता 254. तत्य गं जेते एवमाहंसु अट्टविहा सव्वजीवा पण्णता ते एवमाहंसु, तं जहाआमिनियोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी मइअण्णाणी सुयमण्णाणी विभंगणाणी। ____ आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! प्राभिणिबोहियणाणित्ति कालो केवचिरं होइ ? गोयमा ! 20 अंतो० उक्को छावदिसागरोबमाई साइरेगाई। एवं सूयणाणीविरोहिणाणी णं भंते! .?जह० एपकं समयं उक्को० छावद्धिसागरोवमाइं साइरेगाई। मणपज्जवणाणी णं भंते ! 0? जह• एक्कं समयं उक्को० देसूणा पुवकोडी / केवलणाणी णं भंते ! ? साइए अपज्जवसिए / मइअण्णाणी णं भंते ! 0? मइअण्णाणी तिविहे पण्णते, तं जहा-प्रणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए का सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए / तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जह० अंतो. उक्को० अणतं कालं जाव अवड्व पोग्गलपरियटें देसूर्ण / सुयअण्णाणी एवं चेव / विभंगणाणी गं झते ! 0? जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुब्धकोडिए अमहियाई / आमिणिबोहियणाणिस्त णं भंते ! अंतरं कालमो केवचिरं होइ ? जह० अंतो०, उक्को० अणंतं कालं जाव अब पोग्गलपरियट्ट देसूणं / एवं सुयणाणिस्सवि / प्रोहिणाणिस्सवि, मणपज्जवणाहिस्सवि। केवलणाणिस्त णं भंते ! अंतरं? साइयस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं। मह-अण्णाणिस्स णं भंते ! अंतरं०? अणाइयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं। प्रणाइयस्स सपज्जवसियस्स गत्थि अंसरं / साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छावलि सागरोषमाइं साइरेगाई। एवं सुव-अण्णाणिस्सवि / विभंगणाणिस्स गं भंते ! अंतरं० ? जह० अंतो०, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। __ एएसि जं भंते ! आभिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं ओहि मण० केवल० मइअण्णाणीणं सुगमगावीणं विभंगमाजीणं कबरे ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी, ओहिणाणी प्रतज्जगुणा, आमिणिबोहिवणाणी सुयणाणी असंखेज्जगुणा, आभिणिजोहियणाणी सुयणाणी एए www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International