Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 713
________________ [जीवालीवाभिगमसूत्र ___ गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगण, उनसे भलेश्य अनंतगण, उनसे कापोतलेश्या बाले अनंतगण, उनसे नीलले तिलेश्या बाले अनंतगुण, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में छह लेश्या वाले और एक अलेश्य यों सर्व जीव के सात प्रकार बताये हैं ! उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कायस्थिति-कृष्णलेश्या लगातार जघन्य से अन्तर्मुहुर्त रहती है, क्योंकि तियंच-मनुष्यों में कृष्णलेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रहती है। देव और नारक पाश्चात्यभवगत चरम अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभवगत अवस्थित प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित लेश्या वाले होते हैं। अधःसप्तमपृथ्वी के नारक कृष्णलेश्या वाले हैं और तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले हैं। उनके पाश्चात्यभव का अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभव का एक अन्तर्मुहूर्त यों दो अन्तर्मुहूर्त होते हैं। लेकिन अन्तर्मुहूर्त के असंख्येय भेद होने से उनका एक ही अन्तर्मुहूर्त में समावेश हो जाता है / इस अपेक्षा से अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट कायस्थिति कृष्णलेश्या की घटित होती है। नीललेश्या की जघन्य कायस्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है, युक्ति पूर्ववत् है / उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम की है। यह धूमप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तर के नैरयिक, जो नीललेश्या वाले हैं, और इतनी स्थिति वाले हैं, उनकी अपेक्षा से है। पाश्चात्य और अग्रेतन भव के क्रमशः चरम और आदिम अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्येयभाग में समाविष्ट हो जाते हैं, अतएव अलग से नहीं कहे हैं। कापोतलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम की है। यह बालुकप्रभा के प्रथम प्रस्तर के नारकों की अपेक्षा से है। वे कपोतलेश्या वाले और इतनी स्थिति बाले हैं। तेजोलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक दो सागरोपम है / यह ईशानदेवों की अपेक्षा से है। पद्मलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम है / यह ब्रह्मलोकदेवों की अपेक्षा से है। शुक्ललेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त / युक्ति पूर्ववत् है / उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है। यह अनुत्तरदेवों की अपेक्षा से है / वे शुक्ललेश्या वाले और इतनी स्थिति वाले हैं। अन्तरद्वार-कृष्णलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त है, क्योंकि तिर्यंच मनुष्यों की लेश्या का परिवर्तन अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है, क्योंकि शुक्ललेश्या का उत्कृष्टकाल कृष्णलेश्या के अन्तर का उत्कृष्टकाल है। इसी प्रकार नीललेश्या और कापोतलेश्या का भी जघन्य और उत्कर्ष अन्तर जानना चाहिए। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कर्ष अन्तर वनस्पतिकाल है / अलेश्यों का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे अपर्यवसित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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