________________ 200] [ जीवाजीदाभिगमसूत्र ___ अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े अाहारकशरीरी हैं, क्योंकि ये अधिक से अधिक दो हजार से नौ हजार तक ही होते हैं। उनसे वैक्रियशरीरी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि देव, नारक, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और वायुकाय वैक्रियशरीरी हैं। उनसे औदारिकशरीरी असंख्येयगुण हैं / निगोदों में अनन्तजीवों का एक ही प्रौदारिकशरीर होने से असंख्यगुणत्व ही घटित होता है, अनन्तगुण नहीं / जैसा कि मूल टीकाकार ने कहा-औदारिकशरीरियों से अशरीरी अनन्तगुण हैं, सिद्धों के अनन्त होने से, औदारिकशरीरी शरीर की अपेक्षा असंख्येय हैं।' औदारिकशरीरियों से अशरीरी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे तेजस-कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदों में तेजस-कार्मणशरीर प्रत्येक जीव के अलग-अलग हैं और वे अनन्तगुण हैं / तेजस और कार्मणशरीर परस्पर अविनाभावी हैं और परस्पर तुल्य हैं। इस प्रकार षड्विध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-सप्तविध-वक्तव्यता 252. तत्थ णं जेते एवमाहंसु सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहा-पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया अकाइया। संचिट्ठणंतरा जहा हेट्ठा। अप्पाबहुयं- सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउकाइया असंखेज्जगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, सिद्धा (अकाइया) अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। 252. जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथापृथ्वोकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और प्रकायिक / इनकी संचिट्ठणा और अंतर पहले कहे जा चुके हैं। अल्पबहुत्व इस प्रकार है-सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे प्रकायिक अनन्तगुण और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं / इनका स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है। 253. अहवा सत्तविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा–कण्हलेस्सा नोललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा अलेस्सा। कण्हलेस्से णं भंते ! कण्हलेसेत्ति कालरो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमभहियाई। णोललेस्से णं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसणं दससागरोबमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई। काउलेस्से णं जह• अंतो० उक्को. तिणि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई। तेउलेस्से णं जह० अंतो० उक्कोदोणि 1. प्राह च मुलटीकाकार:--प्रौदारिवाशरीरिभ्योऽशरीरा अनन्तगुणा: सिद्धानामनन्तत्वात्, औदारिकशरीरिणां च शरीरापेक्षयाऽसंख्येयत्वादिति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org